भाषा और जाति

जाति शब्द संस्कृत की ‘जनि’ (जन) धातु में ‘क्तिन्’ प्रत्यय लगकर बना है। न्यायसूत्र के अनुसार ‘समान प्रसावात्मिका जाति’ अर्थात् जाति समान जन्म वाले लोगों को मिला कर बनती है। सामान्य रूप से यदि हम देखें तो जाति का सम्बन्ध मनुष्य के जन्म लेने से है। मनुष्य की जीविधा निर्वाह के लिए चुने गए – कार्य-क्षेत्र को आधार बनाकर किए गए वर्गीकरण को जाति कहते हैं।
भाषा अर्थात् Language किसी भी जाति के अस्तित्व और उसके विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण बिंदु है। मनुष्य जिस जाति में जन्म लेता है उस जाति के संस्कार उसके भीतर गहरे तक जुड़े रहते हैं। यह सर्वविदित है कि हम जिस जाति में जन्म लेते हैं उसकी वेशभूषा, खान-पान, संस्कृति तथा भाषा का प्रभाव हमारे भीतर पड़ता है ये सभी संस्कार हमें जन्म से मिलते हैं यह देखा जा सकता है कि एक जाति की भाषा में दूसरी जाति की भाषा से अन्तर होता है।
रामविलास शर्मा ने जाति के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं परन्तु वे जिस जाति शब्द की चर्चा करते हैं उसका सम्बन्ध किसी ‘Caste’ विशेष से नहीं बल्कि प्रदेश विशेष में रहने वाले लोगों से है।
‘निराला’ की साहित्य साधना द्वितीय खण्ड में रामविलास जी ने लिखा है- “भारत में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। इन भाषाओं के अपने-अपने प्रदेश हैं। इन प्रदेशों में रहने वाले लोगों को ‘जाति’ की संज्ञा दी जाती है। वर्ण-व्यवस्था वाली जाति-पांत से इस ‘जाति’ का अर्थ बिल्कुल भिन्न है। किसी भाषा को बोलने वाली, उस भाषा क्षेत्र में बसने वाली इकाई का नाम जाति हो।”
रामविलास शर्मा हिंदी भाषा के महत्व को भली-भांति जानते और समझते थे। वे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने के पक्षधर थे वे जानते थे कि कोई भी राष्ट्र तभी तक जीवित रह सकता है जब तक उस राष्ट्र की एकता बनी रहे। जिसका बहुत अधिक दायित्व भाषा पर भी है। वे कहते हैं जिस तरह भाषा के आधार पर बांग्ला, गुजराती, मराठी आदि जातियों की पहचान होती है उसी तर्ज पर हिंदी प्रदेश के लोग भी जनपदीय बोलियों के आधार पर पहचाने जाने के बजाय एक हिंदी भाषी जाति के रूप में पहचाने जाएं।
हम देख सकते हैं कि रामविलास शर्मा मानते हैं कि जाति का सीधा संबंध भाषा से है।
हमारे देश में बहुत सी भाषाएं बोली व समझी जाती है। इनमें से कुछ भाषाएं ऐसी है जो हिंदी भाषा से निकली है। पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी, बिहारी, पहाड़ी आदि सभी हिंदी भाषा के अन्तर्गत आती हैं। इन भाषा-भाषी क्षेत्रों के अलावा बंगाली, मराठी तमिल, कन्नड़ पंजाबी भाषा-भाषी भी हैं जिनकी भाषाओं का संप्रेषण करने का तरीका हिंदी भाषा-भाषी से भिन्न हो सकता है। क्योंकि प्रत्येक भाषा-भाषी के संप्रेषण करने के प्रतीक चिह्न भिन्न-भिन्न होते हैं। वे सभी अपनी जाति अर्थात् क्षेत्रीयता के आधार पर ही संप्रेषण करते हैं। उनकी भाषा का शब्दकोश उनकी क्षेत्रीयता पर ही निर्धारित होता है।
विभिन्न जातियाँ जब किसी कारणवश अपने क्षेत्र से बाहर निकलती है और अन्य क्षेत्र के किसी व्यक्ति/जाति से वार्तालाप करती है तो यह स्वाभाविक ही है कि उन दोनों पर ही एक-दूसरी की भाषा का प्रभाव पड़ता है । परन्तु फिर भी जब क्षेत्रीयता की बात आती है तब उनका जोर अपनी भाषा की विशिष्टता को बनाए रखने का होना है। इस प्रकार एक देश में रहते हुए एक जाति भाषा के आधार पर अन्य जाति से भिन्न हो जाती है। एक ही जातीय भाषा के लोग आपस में एक-दूसरे की भाषा को समझ सकते हैं परन्तु यह आवश्यक नहीं कि अन्य जाति के लोगों की भाषा भी वे समझ सकें जैसे एक राजस्थानी भाषी का भाषा एक ब्रजभाषी समझ सकता है। परन्तु एक तमिल भाषी मराठी भाषी की भाषा को समझना उसके लिए कठिन होगा क्योंकि वह उसकी जातीय भाषा से भिन्न होगी।
अतः स्पष्ट है कि भाषा और जाति का संबंध एक-दूसरे से घनिष्ठ होते हुए भी ये एक-दूसरे से कहीं न कहीं भिन्न भी हैं।
किसी भी मनुष्य की भाषा उसकी जातीय प्रभाविकता का आधार होती है। भाषा के इन जातीय संस्कारों के सहायक से ही भाषा वैज्ञानिक भाषा का अध्ययन और वर्गीकरण कर पाते हैं। भाषा के जातीय संस्कारों के माध्यम से ही हम सजातीय और विजातीय भाषाओं का अध्ययन कर पाते हैं।
यह भाषा की जातीय चेतना ही है कि अब हिंदी की क्षेत्रीय बोलियों को भी भाषा का दर्जा देने की माँग उठ रही है। भाषा और जाति जहाँ एक ओर हमें जोड़ने का काम करती हैं वहीं दूसरी ओर जातीय भाषा कभी-कभी उत्पीड़न का काम भी करती है अंग्रेजों ने हिंदू-मुसलमानों के बीच बैर को आगे बढ़ाने में हिंदी और उर्दू भाषा को भी एक मुद्दा बनाया था। उन्होंने हिंदी को हिंदुओं की तथा उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताकर दोनों जातियों के बीच एक गहरा अलगाव पैदा किया।