भाषाई अस्मिता और जेंडर

भाषाई अस्मिता
मनुष्य समाज में जन्म लेता है पलता है, बढ़ता है और धीरे-धीरे दूसरों से अलग अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाता है। इस पहचान में जब अहम् की भावना घर कर जाती है तो अस्मिता का प्रश्न उठता है। स्वयं को दूसरों से कमतर न मानना ही अस्मिता के प्रश्न को जन्म देता है। दलित अस्मिता, नारी अस्मिता, आदिवासी अस्मिता आदि के मूल में यही प्रश्न घूमते दिखाई देते हैं । जहाँ एक से अधिक वस्तु के होने का भाव होगा वहाँ अस्मिता का प्रश्न उठना स्वाभाविक भी है यही कारण है कि इस बहुभाषी समाज में अस्मिता का एक मूल प्रश्न के रूप में हमारे समक्ष आता है।
भारत एक बहुभाषी देश है। प्राचीन समय से ही यहाँ पर अनेक भाषाओं का प्रयोग होता रहा है। प्राचीन समय से लेकर अब तक कई भाषाएँ अस्तित्व में आई जिनमें कुछ भाषाएँ ऐसी थीं जिनका आगे जाकर विकास हुआ तो कुछ अन्य भाषाएँ ऐसी भी थी जो भ्रष्ट होकर या अपना अस्तित्व खोकर समाप्त हो गईं। कुछ भाषाएँ बोलचाल तक सीमित रहीं तो कुछ अन्य भाषाओं ने साहित्य और सत्ता पर राज किया।
आज भी हमारे देश में कई भाषाएँ और बोलियाँ लिखी, पढ़ी व बोली जाती है परंतु इन सभी भाषाओं को भाषा का दर्जा दिया जाना या आठवी – अनुसूची में शामिल करना संभव नहीं है परन्तु फिर भी भाषाओं के आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए किसी न किसी भाषा को लेकर विवाद चलता रहता है जैसे भोजपुरी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए वाद-विवाद चल रहा है। इसके अलावा तेलंगाना के रूप में एक अलग राज्य की माँग भी भाषा के कारण ही पैदा हुई।
संस्कृत ‘अस्’ धातु से निष्पन्न भूत ‘अस्ति’ तथा ‘अस्मि’ शब्द का अर्थ होना, सत्तात्व एवं अहम् अर्थात् ‘मैं’ होता है। अस्तु अस्मिता किसी सत्ता के होने तथा उसके ‘मैं’ पन का वाचक है। सहज सम्बोध्य रूप में अस्मिता व्यक्तिबोधक है। जिस प्रकार राष्ट्रीय अस्मिता का शब्दार्थ राष्ट्र के होने, उसकी सत्तात्मकता तथा व्यक्तित्व की व्यंजना है। उसी प्रकार भाषाई अस्मिता का शब्दार्थ भाषा के होने, उसकी सत्तात्मकता तथा व्यक्तित्व की व्यंजना है।
हर एक जनसमुदाय की अपनी अलग भाषा होती है जिसे उस समुदाय की पहचान कहा जाता है। यह भाषा ही है जो अन्तः सलिला की तरह समाज के भीतर प्रवाहित होकर एक निश्चित समुदाय के व्यक्तियों को अभिव्यक्ति के धरातल पर जोड़ती है। इस तरह भाषा समाज को धारण करती है। अत: एक दृष्टि से समाज की अस्मिता भाषा की अस्मिता से अलग नहीं होती।
सामाजिक अस्मिता पद्धति अनुमान पर आधारित है जो लोगों को अपने आप को अनुग्रह में देखने के लिए प्रेरित करती है। सामाजिक अस्मिता पद्धति का मूल विकास व्यक्तिगत व्यवहार के नमूनों का वर्णन करने के लिए तब हुआ जब वे बिखरे हुए समूह से एक निश्चित समूह में आवंटित हुए। शीघ्र ही यह महत्वपूर्ण सामाजिक समूह की सदस्यता के ज्ञान और व्यवहार को प्रभावशाली रूप में समझने के लिए एक ढांचे के रूप में प्रस्तावित की गई। इसके अलावा विलियम्स और गिल्स ने सामाजिक अस्मिता की नारीवादी पद्धति की चर्चा की है जो लिंग, अस्मिता और भाषा को समझने के लिए प्रयोग की जाती है।
भारत के निवासियों में भी उत्तर भारत का निवासी दक्षिण भारत की भाषा समझने में असमर्थ रहता है और दक्षिण भारत का निवासी उत्तर भारत की भाषा में कठिनाई महसूस करता है। गुजरात का निवासी बंगाल में और बंगाल का निवासी राजस्थान में भाषागत समस्या से त्रस्त देखा जाता है।
भाषा और अस्मिता बहुत समय से चर्चा का विषय रहा है। विभिन्न विद्वानों ने इसके विषय में अपने-अपने मत दिए हैं। कुछ प्रमुख विद्वानों के मत इस प्रकार हैं-
आर. के. अग्निहोत्री कहते हैं- हम प्राय: अस्मिताओं को एक-दूसरे के परस्पर विरोधी के रूप में देखते हैं। अल्पसंख्यक के मामले में अस्मिता का प्रश्न विशेष संबद्ध रखता है और राष्ट्रीय तथा सार्वभौम शांति एवं समन्वय लिए उनकी भाषा और संस्कृति के प्रति संवेदनशील होने की आवश्यकता है।
एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं- भाषा केवल व्यक्ति विशेष की पहचान का हिस्सा ही नहीं, अपितु उस समुदाय की पहचान का भी हिस्सा है जिसका वह व्यक्ति-विशेष सदस्य है। भाषागत पहचान के लिए समुदाय की दृष्टि से यह जरूरी नहीं कि आपको उसी समुदाय की भाषा आती हो। ऐसे कई पंजाबी है दुनिया में जो पंजाबी नहीं जानते पर पंजाबी के लिए जान देने को तैयार है। जब भी किसी समुदाय, किसी राज्य किसी देश के बनने की बात होती है, तो भाषा का प्रश्न अवश्य सामने आता है। हिन्दुस्तान व पाकिस्तान बनाना हो, या पाकिस्तान से बंगलादेश अलग करना हो, आंध्र प्रदेश बनाना हो या हरियाणा, बोडोलैंड या बुन्देलखंड – भाषागत पहचान निर्णायक भूमिका अदा करती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा एक ओर जहाँ दो व्यक्तियों, समूहों के बीच आपसी मेल का कारण बनती है वहीं दूसरी ओर भाषा ही आपसी वैमनस्य का कारण भी बनती है।
लेसले मिलरोय (Lesley Milroy) लेबॉव द्वारा किए गए अनुसंधान की चर्चा करते हुए कहते हैं कि लेबॉव ने हरलेम दल का हवाला देते हुए कहा है कि एक वक्ता की यह इच्छा होती है कि वह अपनी संस्कृति और भाषा के माध्यम से समाज में पहचाना जा सके।… उदारहण के लिए क्षेत्र, व्यवसाय, आदि किसी भी वक्ता की भाषा से संबंधित होते हैं। लेडली पेज (Led Le Page) का मानना है कि किसी वक्ता का उच्चारण ही उसकी भाषाई अस्मिता को बनाता है।
जेनिफर बयेर (Jennifer Bayer) का मत है बहुभाषी समाज में अस्मिताएं एक धर्माधिकारी के रूप में कार्य करती है। प्रत्येक समूह एक | अस्मिता के प्रति लगाव रखने पर प्राथमिक दबाव डालता है ठीक उसी समय वह अपने को दूसरी अस्मिता से अलगाने पर भी बल देता है। उदाहरण के लिए तमिल भाषा और संस्कृति को असंख्य भाषा और संस्कृति में बांटा जाए जो विविध सामाजिक कोटियों जैसे जाति, वर्ग, क्षेत्र, धर्म आदि में बंटी हुई है तब ऐसे क्या कारण हैं कि तमिल की भाषा और संस्कृति में प्रत्येक की एकल सत्ता बनी हुई है। यह सत्ता सामाजिक समूहों के कारण ही बनी हुई है।
लिय लिटोस्सेलिटी (Lia Litosseliti) अस्मिता को व्यक्तिगत और सामूहिक दो रूपों में देखते हैं वे कहते हैं हमारी अस्मिताएँ विचार, विश्वास और संभावनाओं के साथ अपने सामाजिक संदर्भ में एक ही समय में व्यक्तिगत और सामाजिक दो प्रकार की होती है। हमारी अस्मिता उस मार्ग को दर्शाती है जिसमें हम लोगों के साथ तथा सामाजिक समूह के रूप में पहचाने जाते हैं और जिसमें हम अपने को दूसरों से अलग करके देखते हैं।
रवींद्रनाथ श्रीवास्तव भाषायी भेद को आर्थिक व्यवस्था और रोजी-रोटी से जोड़ते हुए कहते हैं कि सामाजिक अस्मिता उन सामाजिक संबंधों पर बनती है जो इस सवाल से बंधा है कौन, किससे और किस विषय पर बोल रहा है। जब तक हम खून में पसीना मिलाकर रोटी-रोजी का इंतजाम करनेवालों को स्कूली कमरा न देंगे और कमरे में बंद रहनेवालों को खेत की खुली हवा में जीने के लिए बाध्य नहीं करेंगे एक जाति के आपसी भाषायी भेद खत्म न होंगे।
डॉ. नामवर सिंह का कहना है भाषायी अस्मिता भाषा बोलने वालों की अपनी पहचान है। जिस भाषा को बोलते ही, उसकी पहचान कैसे बचाई जाए या विकसित की जाए और उस बदलती हुई पहचान के साथ वह एक सुगठा कैसे बनी रहे। एकदम इतनी न बदल जाये कि स्वयं वह भाषा न रह जाए….. प्रत्येक भाषा की या भाषायी अस्मिता की अपनी अलग-अलग समस्याएं हैं। पंजाबी की समस्या वह नहीं है, जो कश्मीरी की होगी या जो कश्मीरी की समस्या है वह, डोगरी की नहीं होगी।
मीनाक्षी स्वामी कहती हैं इस तथ्य से तो सभी परिचित हैं कि भाषा में ही भावाभिव्यक्ति, विषय-विवेचन हो सकता है। इसके बावजूद भारतीय भाषाओं को दोहरे संघर्ष का सामना करना पड़ता है, एक तो आपसी मतभेद और दूसरे विदेशी भाषा से मुकाबला । भाषा का यह संकट राष्ट्रीय अस्मिता पर भी दिखाई देता है।
दयाशंकर सिंह भाषायी अस्मिता को सामाजिक और जातीय अस्मिता से जोड़ते हुए कहते हैं भाषायी अस्मिता भाषा भाषियों की सामाजिक और जातीय अस्मिता से जुड़ी होती है। भारतीय भाषाओं की अस्मिता का सवाल भारतीय समाज और जातीय व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। यदि किसी भाषा की अस्मिता के लिए कोई संकट है तो उसे सामाजिक व्यवस्था में आने वाले संकट के रूप में लेना चाहिए। प्रत्येक भाषा अपने बोलने वालों को अपनत्व के दायरे में रखती है, उन्हें एक सूत्र में बांधती है। भाषायी अस्मिता के क्षीण होने से भाषा-भाषियों के अपनत्व का जो दायरा है उसमें दरारें पड़ने लगती हैं। इस देश के संदर्भ में इसे घटित होते हुए हम देख रहे हैं। हमारी सामाजिक, जातीय और राष्ट्रीय अस्मिता भाषा में ही प्रतिफलित होती है।
विंध्यावासिनी नंदन पाण्डेय का मानना है कि भौगोलिक सत्ता के अतिरिक्त किसी देश अथवा राष्ट्र के लिए उसकी भाषायी सत्ता का होना भी अनिवार्य है। अपना भूगोल और अपनी भाषा के अभाव में किसी देश अथवा राष्ट्र की सत्ता इसके होने, उसके अपने व्यक्तित्व, जो सुष्ठु भाव से अस्मिता की अभिधा से युक्त किए जाते हैं, का कोई अस्तित्व एवं अपनी परिभाषित स्थिति नहीं हो सकती।
प्रत्येक भाषा की अपनी अस्मिता होती है परन्तु जब हम राष्ट्र संदर्भ में अस्मिता की बात करते हैं तो अस्मिता का विषय और भी गंभीर हो जाता है। हमारे देश में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं प्रश्न यह उठता कि इन अनेक भाषाओं में से वह कौन-सी भाषा है जो हमारे राष्ट्र की अस्मिता को ब्यान कर सके ? वह कौन-सी भाषा है जिसे आठवीं अनुसूची में शामिल किया जा सके? क्या भाषा का दर्जा मिलने पर ही कोई भाषा, भाषा कहलाएगी ? आदि आदि।
भाषिक अस्मिता समाज को जोड़ने के अलावा कभी-कभी अलगाव का कारण भी बनती है। यह अलगाव भाषा से प्रारंभ होकर जाति, धर्म, वर्ग आदि तक भी पहुंच जाता है और इस प्रकार यह स्थिति अत्यंत भयावह बन जाती है। भाषा के कारण कई विभिन्न जातियों के मध्य अलगाव को देखा जा सकता है। यहाँ तक की कई बार क्षेत्रीयता के आधार पर भी भाषा को सहारा बनाकर हमारी एकता को विखंडित करने का प्रयास किया जाता है। जैसे- आंध्र प्रदेश में एक नहीं, अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं पर तेलुगु भाषा को क्षेत्रीयता का आधार बनाते हुए एक तरफ उसमें एकता का भाव पैदा करना चाहते हैं तो दूसरी तरफ उसे विशिष्ट सिद्ध करते हुए हिंदी, तमिल आदि अन्य इकाइयों से काटने की ओर भी प्रवृत्त होते हैं। जो स्थिति आंध्रप्रदेश और तेलुगु भाषा की है, उससे भिन्न कोई स्थिति तमिलनाडु और तमिल, कर्नाटक और कन्नड़ महाराष्ट्र और मराठी आदि क्षेत्रों की नहीं है।
भाषाई आधार पर प्रातों का पुनर्गठन धीरे-धीरे बढ़ने लगा। 1956 में राज्यों की संख्या 16 थी, जो 1971 में जाकर 22 हो गई फिर 25 और आज 28 हो चुकी है। गुजराती और मराठी भाषा भाषियों के आपसी तनाव और टकराहट ने 1960 में महाराष्ट्र को दो उपखंडों में विभक्त किया और हिंदी तथा पंजाबी के झगड़े ने सालों से एक-दूसरे के नाम पर अलग करने के लिए पंजाब को पंजाबी सुबा और हरियाणा में बाँट दिया।
अंत में हम कह सकते हैं कि भाषा का प्रश्न हमारी अस्मिता का प्रश्न ही है किसी व्यक्ति या समुदाय की भाषा समाप्त होने पर उस व्यक्ति या समुदाय का ही अंत हो जाता है।
pdf डाउनलोड करें:
भाषा और जेंडर (लिंग)
‘सेक्स’ (काम, वासना) और ‘जेंडर’ (लिंग) को कभी-कभी एक-दूसरे के स्थान पर या समानार्थी के रूप में प्रयोग किया जाता है।
भाषा और ‘जेंडर’ की सैद्धान्तिकी मानने वाले विद्वान ‘सेक्स’ को एक शरीर, देह के रूप में और ‘जेंडर’ को एक सांस्कृतिक तथा सामाजिक संरचना के रूप में दोनों के बीच अंतर पैदा करते हैं। इस अंतर को मानने वालों का कहना है कि ‘सेक्स’ स्त्री और पुरुष की शरीर रचना उसके कार्यों को दर्शाता है जबकि ‘जेंडर’ एक ‘सेक्स’ की विशेषता और अंतर का निर्धारित करता है। जिसमें पुरुष और स्त्री भिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों के बीच एक-दूसरे को अलग-अलग स्थान पर देखते हैं। ‘सेक्स’ साधारण तौर पर जीनस, हार्मोन्स और शारीरिक विकास का परिणाम है।
एक पति-पत्नी के बीच वार्तालाप का छोटा सा अंश देखिए। प्रातः काल का समय है-
पति : सात बज रहे होंगे।,
पत्नी: चाय का पानी रख दिया है। अभी लाती हूँ।
पति : (हं) अखबार नहीं आया।
पत्नी : अभी लाती हूँ।
हर घर में ऐसी बातचीत हमारे यहाँ रोज होती है। आप देखिए कि पति हर बार एक ‘स्टेटमेंट’ देता है। वह न तो प्रश्न पूछता है, न कुछ माँगता है, न आर्डर देता है, न याचना करता है। केवल एक विवरणात्मक वाक्य बोलता है। लेकिन पत्नी हर वाक्य को एक आज्ञा मानती है। वास्तव में पति क्या कह रहा है? कैसा संप्रेषण है यह? अगर कोई आप से पूछे – सात बज रहे होंगे? तो उसका स्वाभाविक उत्तर होगा- ‘नहीं’ अभी तो छः बजे हैं या ‘सात बजकर दस मिनट हो गये’ आदि। पत्नी को मालूम है कि वास्तविक संप्रेषण है: तुम मेरी पत्नी हो। पति का दर्जा समाज में ऊँचा होता है। यह ध्यान रखना पत्नी का काम है। कि पति को सात बजे चाय मिले और उसके साथ ही पत्नी उसे अखबार व उसका चश्मा भी दे। वास्तव में इस संवाद की कोई संप्रेषणात्मक आवश्यक नहीं है। भाषा की दृष्टि से यह केवल एक औपचारिकता है लेकिन सामाजिक दृष्टि से यह औपचारिकता एवं नित्य इसका दोहराना विशेष महत्व रखता है। इस संवाद में पत्नी का स्थान एक आज्ञाकारी नौकर से अधिक नहीं – ‘ अभी लाती हूँ. अभी देखती हूँ’ आदि।
एटचीसन कहते हैं कि महिलाओं पर समाज के द्वारा अच्छा व्यवहार और सभ्य भाषा बोलने पर दबाव दिया गया है। क्योंकि वे अपने बच्चों का पालन-पोषण करती हैं तो उन पर यह दबाव अधिक दिया जाता है। जिससे वे अपने बच्चों को सामाजिक दृष्टि से प्रगति करने योग्य बना सकें।
समाज धीरे-धीरे परिवर्तित हो रहा है। रूढ़िवादिता समाप्त हो रही है। पहले महिलाएं केवल घरों में बैठकर चूल्हा चौका तक ही सीमित रहती थीं परन्तु जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ, समाज के विकास के साथ ही हमारे रहने, उठने-बैठने में भी परिवर्तन आया। पहले स्त्रियों को घर की चार दिवारी तक ही सीमित रखना सभ्यता की निशानी मानी जाती थी परन्तु आज समय बदल रहा है। स्त्री केवल घर के चूल्हा-चौका तक ही सीमित न रहकर बल्कि ‘मल्टीनेशनल’ कार्यालयों तक भी कार्य कर रही हैं। आज वे अध्यापक, डॉक्टर, इंजीनियर, यहाँ तक की हवाई जहाज भी उड़ा रही हैं। महिलाओं की इस बदलती हुई स्थिति से उसका रहन-सहन तो बदला ही है साथ ही उसकी भाषा में भी बदलाव आया है। पिछले कुछ सालों में जब से महिलाओं ने घर से बाहर जाकर काम करना प्रारंभ किया है, कामकाजी महिलाओं और पुरूषों की भाषा में बहुत कम अंतर दिखाई देता है।
स्त्री और पुरुष की भाषा में निम्न अंतर पाया जाता है?

पामेला फिशमैन (Pamela Fishman) का कहना है कि पत्नी अपने पति को वार्तालाप के समय विषय के विकास के लिए और उसका उत्साह बढ़ाने के लिए अल्पमात्रा में उत्तर देती रहती है जैसे हूँ… हाँ… अ… ह आदि परन्तु उसका पति प्रतिक्रिया देने में या तो विलंब करता है या फिर बात को काट कर कम कर देता है। इस प्रकार उसका व्यवहार असहयोगी होता है।
जल्दी ही भाषा और लिंग पर पहला कार्य ‘भाषा और स्त्री का स्थान’ नाम से स्त्रीवादी लेखिका रोबिन लकोफ (Robin Lakoff) का 1973 में दिखाई देता हैं और पुस्तक के रूप में 1975 में। अपनी इस प्रभावशाली पुस्तक के माध्यम से लकोफ ने अपने विचारों को आगे प्रस्तुत किया जो अन्य स्त्रीवादी लेखिकाओं के द्वारा बहुत अधिक पसंद किए गए। वहाँ लेकोफ स्त्रियों की भाषा में भेदभाव होने का दावा प्रस्तुत करती है। वे उन दोनों भाषाओं के बारे में बताती हैं – भाषा जो स्त्रियों द्वारा प्रयोग की जाती है और भाषा जो उनके बारे में (उनके लिए) प्रयोग की जाती है। अपनी कमजोरी और अतिशयता के बावजूद स्त्रियाँ उल्लेखनीय और दूसरों से भिन्न भाषा का प्रयोग करती हैं।
लेकोफ ने स्त्रियों की भाषा के कुछ लक्षण जैसे स्त्रियों के कार्यों शब्दकोश सुनिश्चित व्यवहार, प्रभावशाली विशेषण, बहुनम्र, शब्द आदि के बारे में चर्चा की है।
देखा जा सकता है कि स्त्री और पुरुष की भाषा में अंतर शब्दों के प्रयोग, . उच्चारण करने के तरीके, व्याकरण-प्रयोग और शैली आदि सभी स्तरों पर हमें कुछ न कुछ अंतर अवश्य दिखाई पड़ता हैं एक स्त्री की भाषा में हमें घर, बच्चे और रसोई आदि से संबंधित शब्दावली अधिक मात्रा में मिलती है जबकि एक पुरुष की भाषा में हमें कार्यालय, राजनीति, समाज आदि से जुड़े प्रश्न अधिक मात्रा में मिलते हैं। इसी प्रकार हम यह भी देख सकते हैं कि एक स्त्री की भाषा शैली एक पुरुष की भाषा शैली की अपेक्षा अधिक कोमल होती है। भाषा में इस प्रकार के अंतर पैदा होने का एक कारण यह भी है कि हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज रहा है। समाज पर पुरुषों का वर्चस्व होने के कारण ही भाषा पर भी पुरुषों का वर्चस्व देखा जा सकता है। आप देखिए एक पुरुष अपनी पत्नी कोट, तुम या उसका नाम लेकर उसे संबोधित करता है जबकि एक पत्नी अपने पति को आप या ए जी, अथवा बच्चे के नाम से सम्बोधित करती है।
दूसरा हमारे यहाँ स्त्रियों को हमेशा आदर्श प्रस्तुत करने के रूप में देखा जाता है। भारतीय समाज में आज भी घर परिवार नाम की संस्था को चलाने का जिम्मा औरत पर ही है। फिर चाहे वह कामकाजी ही क्यों न हो पर जब बात बच्चों की आती है तो उन्हें अच्छी तरह से शिक्षित करने, सही-गलत का अहसास कराने, आदर्श जीवन आदर्श बातें ये सभी घर की औरत ही बच्चे को सीखाती है। इसीलिए उससे यह उम्मीद की जाती है कि उसका जीवन आदर्शवादी हो और वह परिष्कृत भाषा का प्रयोग करे। यह माना जाता है कि बच्चे माँ के साथ अधिक रहते हैं इसलिए बच्चा पिता से अधिक माँ से सीखता है इसलिए यह आवश्यक है कि माँ की भाषा अधिक परिमार्जित होनी चाहिए।
तीसरा पुरुष प्रधान समाज होने के कारण भाषा के कई रूप ऐसे हैं जहाँ आज भी पुरुषों का ही वर्चस्व है। उदाहरण के लिए हम गौर करें तो हम देख पाएंगे कि समाज में जितनी भी गालियाँ दी जाती हैं लगभग सभी गालियां ऐसी हैं जो स्त्रियों को या उनकी यौनिकता को आधार बनाकर ही दी जाती है।
चौथा, हम देख सकते हैं कि व्याकरण में भी स्त्री-पुरुष भाषा-भेद पाया जाता है। हिंदी में पुरुष के लिए आकारान्त और स्त्री के लिए ईकारान्त क्रिया का प्रयोग किया जाता है। (जैसे गाता है – गाती है) परन्तु यदि किसी स्थान पर पुरुष और स्त्री दोनों का वर्णन किया गया हो तो क्रिया पुल्लिंग ही आती है जैसे-
-सीता और राम गाते हैं
– राम और सीता खाते हैं आदि।
इसी प्रकार विशेषण में भी इस प्रकार का अंतर देखा जा सकता है। जैसे अच्छा-अच्छी, विद्वान-विदुषी, गुणवान गुणवती, प्यारा प्यारी, आदि। अंग्रेजी भाषा में तो यह अंतर सर्वनाम के स्तर पर भी देखा जा सकता है।
जैसे- He, She
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि स्त्री और पुरुष की भाषा में अंतर की एक लंबी परंपरा रही है । परन्तु फिर भी कहना न होगा कि जब से स्त्री घर की चार दिवारी से बाहर निकली है, पुरुष के समकक्ष कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगी है तब से उसकी भाषा में ये बदलाव देखा जा सकता है परन्तु इसका प्रतिशत अभी बहुत ही कम है।
Download pdf :