भक्ति आंदोलन: उद्भव और विकास
भक्ति आंदोलन उद्भव और विकास
भक्ति आंदोलन का उद्भव हिन्दी साहित्येतिहास के सर्वाधिक विवादास्पद प्रसंगों में से एक है। पूर्व मध्यकाल में जिस भक्ति धारा ने अपने आन्दोलनात्मक सामर्थ्य से समूचे राष्ट्र की शिराओं में नया रक्त प्रवाहित किया, उसके उद्भव के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। एक बात पर तो सहमति है कि भक्ति की मूलधारा दक्षिण भारत में 6-7वीं शताब्दी में ही शुरू हो गई थी। 14वीं शताब्दी में इसने उत्तर भारत में अचानक आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया। किन्तु, भक्ति दक्षिण भारत से उत्तर भारत कैसे आई, उसके आंदोलनात्मक रूप धारण करने के कौन से कारण रहे इस पर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है।
सर्वप्रथम जॉर्ज ग्रियर्सन ने भक्ति के उद्भव के मूल में ईसाइयत की परंपरा को देखा है। जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ में बताते हैं कि ‘समस्त धार्मिक मत-मतांतरों के अंधकार पर बिजली सी कौंध दिखाई पड़ती है। कोई हिन्दू यह नहीं जानता कि यह बात कहाँ से आई, किन्तु इतना तो निश्चित है कि समस्त भारतवर्ष में इतना विराट आंदोलन शायद ही कभी देखा हो।’ ग्रियर्सन के मत की समीक्षा करने पर यह स्पष्ट होता है कि भारतीय जनता पर भक्ति आंदोलन अपनी गहरी छाप छोड़ रहा था, किन्तु यह भी सत्य है कि कोई भी आंदोलन अचानक पैदा नहीं होता उसकी अपनी एक प्रकृति होती है, वह एक दीर्घकालीन प्रक्रिया की परिणति होती है, इसलिए ग्रियर्सन की यह अवधारणा भ्रामक है।
ग्रियर्सन भक्ति आंदोलन को ईसाईयत की देन बताते हैं, इसके प्रमुख कारण हो सकते हैं- ईसाईयत में द्वैत भावना विद्यमान है यह द्वैत भावना भक्ति साहित्य में भी देखी जा सकती है। ईसाईयत में विद्यमान नैतिक भावना भक्ति आंदोलन में आध्यात्मिक, सामाजिक विमर्श के रूप में देखने को मिलती है। जाहिर है कि इन कुछ समानताओं के आधार पर ग्रियर्सन ने यह निष्कर्ष निकाला होगा, कि भक्ति आंदोलन ईसाईयत की देन है। हालांकि बाद के इतिहासकारों ने इस अवधारणा को अस्वीकार्य कर भक्ति के उद्भव की अन्य व्याख्यायें प्रस्तुत की।
हिन्दी साहित्य का प्रथम व्यवस्थित इतिहास लिखने वाले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भक्ति के उद्भव के मूल में मुसलमानी राज्य की सत्ता को देखते हैं। शुक्ल जी अपनी इतिहास दृष्टि में युग चेतना और समकालीन-सामाजिक परिवेश को विशिष्ट महत्त्व देते हैं। वे लिखते हैं- “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा ली ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था।” सारांश यह है कि जिस समय मुसलमान भारत में आए उस समय सच्चे धर्म भाव का बहुत कुछ ह्रास हो चुका था। परिवर्तन के लिए बहुत कड़े धक्कों की आवश्यकता थी और शुक्ल जी के अनुसार मुसलमानों का आगमन भारतीय सांस्कृतिक संरचना के लिए एक बड़ा धक्का था।
डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, बाबू गुलाब राय और रामकुमार वर्मा भी शुक्ल के ही मत का समर्थन करते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आचार्य शुक्ल के भक्ति के उद्भव संबंधी उपरोक्त व्याख्या का खंडन करते हैं और भक्ति को भारतीय चिंता धारा का स्वाभाविक विकास मानते हैं, उन्होंने इसे दक्षिण के भक्ति आंदोलन से भी जोड़ा है। आचार्य द्विवेदी जॉर्ज ग्रियर्सन की ईसाईयत संबंधी अवधारणा का भी खंडन करते हैं और भक्ति के पुरस्कर्ता अलवारों को बताते हैं। वे लिखते हैं कि- स्पष्ट है कि अलवारों का भक्तिवाद जनसाधारण की वस्तु थी जो शास्त्र का सहारा पाकर सारे भारत में फैल गई। इस्लामी आक्रमण की व्याख्या का खण्डन करते हुए वे कहते हैं कि- “मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिंध में और फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई वह दक्षिण में।” इस आधार पर उनका स्पष्ट कहना है कि “अगर इस्लाम नहीं भी आया होता तो भी भक्ति साहित्य बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।” उन्होंने इस्लाम के प्रभाव को पूरी तरह नकारा नहीं है। इस्लाम के प्रभाव को द्विवेदी जी ने सिर्फ चार आना ही माना है।
नामवर सिंह ने ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में द्विवेदी जी की मध्ययुग विषयक दृष्टि को रेखांकित करते हुए लिखा है- “इस प्रकार मध्ययुग के भारतीय इतिहास का मुख्य अंतर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद है, न कि इस्लमा और हिंदू धर्म का संघर्ष” द्विवेदी जी शास्त्र की इसी लोकोन्मुखता को भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि मानते हैं।
भक्ति आंदोलन के उद्भव के सम्बन्ध में एक अन्य मत मार्क्सवाद भी प्रस्तावित किया गया है, जिसे मुख्यतः इरफान हबीब और के. दामोदरन ने प्रस्तावित किया है। हबीब के अनुसार दिल्ली सन्तनत की स्थापना के कारण जब बड़े पैमाने पर सड़क और भवन निर्माण आरंभ हुआ तो निम्न वर्गों की आर्थिक स्थिति में अचानक सुधार आया, जिससे उनके भीतर सामाजिक प्रतिष्ठा की भूख बड़ी। इसी तनाव, बेचैनी और छटपटाहट ने निर्गुण संत काव्य को जन्म दिया, जो भक्ति आंदोलन का प्रारंभिक बिंदू है। इसका प्रमाण यह है कि संत काव्यधारा में शामिल सभी कवि प्रायः निम्न वर्गों से ही सम्बन्धित है।
उपरोक्त सभी मतों का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि विदेशी प्रभाव सम्बन्धी व्याख्या तो प्रायः अस्वीकार्य है, किन्तु शेष सभी व्याख्याएँ कहीं-न-कहीं आंशिक रूप से ठीक है। कोई भी जटिल सांस्कृतिक घटना वस्तुतः किसी एक कारण से जन्म नहीं लेती, उसकी व्याख्या बहुसूत्रीय पद्धति से ही हो सकती है। इसलिए भक्ति आंदोलन अपने इतिहास, आर्थिक स्थितियों और ‘जनता की चितवृत्ति’ की पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रियाओं से उपजा हुआ आंदोलन है, न कि किसी एक कारण से।