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निर्गुण भक्ति धारा: संत, सूफी काव्य।

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निर्गुण : ज्ञानाश्रयी संत काव्यधारा

14वीं सदी के मध्य से 17वीं सदी के मध्य तक भक्ति का अनवरत प्रवाह भारत की कोटि-कोटि दलित शोषित जनता के लिए शक्ति और स्फूर्ति का पर्याय रहा, इसलिए ग्रियर्सन से लेकर रामविलास शर्मा तक साहित्यकारों-आलोचकों ने इसकी पहचान लोग-जागरण-नवजागरण के रूप में की है। निर्गुण काव्यधारा से ही भक्ति का आन्दोलनात्मक स्वरूप दिखाई पड़ता है। आचार्य शुक्ल निर्गुण काव्यधारा की जिस शाखा को ज्ञानाश्रयी कहकर पुकारते हैं, डॉ. रामकुमार वर्मा ने उसे संतकाव्य नाम दिया। संत शब्द से आशय उस व्यक्ति से है, जिसने परम तत्त्व का साक्षात्कार कर लिया हो। जो अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके (परमात्मा) के साथ तद्रूप हो गया हो। इस प्रकार जो सत्य का साक्षात्कार कर चुका हो, वही संत है।

संत काव्यधारा की प्रमुख ख्याति सामाजिक विषमताओं के प्रति जोरदार विद्रोह करने वाली काव्यधारा के रूप में है। इस काव्यधारा के प्रमुख कवि कबीरदास हैं तथा रैदास, दादूदयाल, मलूकदास, गुरुनानक देव आदि अन्य प्रमुख कवि हैं।

  • प्रमुख प्रवृत्तियाँ

संत साहित्य का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है सभी संत कवि निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल देते हैं। सामान्य जन को राम की उपासना का व्रत देकर, निर्गुण पंथ के इन कवियों ने भक्ति को, लोक में सामंजस्य स्थापित करने का माध्यम बनाया। संत काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्न हैं

 (i)     भक्ति निरूपण : संत कवियों के लिए भक्ति शान्ति की खोज में आए साधक की शरण भूमि न थी, यह उनकी कर्म-भूमि थी। इसी से वे लोक हृदय को आस्था का सबल दे सके तथा सामाजिक एक्य की स्थापना के लक्ष्य की ओर प्रयत्नशील हो सके। संत कवियों ने भक्ति के अनुभूति-पक्ष को ही प्रधान रूप से चित्रित किया है। निर्गुण ब्रह्म की प्रतिति ज्ञान के द्वारा ही की जा सकती है, इसीलिए इन कवियों को ज्ञानमार्गी कहा जाता है। इन्होंने सगुणवाद, अवतारवाद और मूर्तिपूजा आदि को सर्वथा त्याज्य बताया और केवल निर्गुण ब्रह्म की सत्ता को ही स्वीकार किया।

संत कवियों के भक्ति भाव में सबसे पहले अहम् का त्याग आवश्यक है। अहम् का नाश होते ही भक्त और भगवान का अन्तर समाप्त हो जाता है। भक्ति हृदय की प्रवृत्ति है। इसकी दिशा और लक्ष्य आध्यात्मिक है। प्रेम की सुखानुभूति जिस आध्यात्मिक जगत् की चीज़ है उसका सिर्फ भावन ही किया जा सकता है

          अकथ कहानी प्रेम की कछू कही न जाए।

          गूंगे केरी सरकार, खाए और मुसकाय।।

इस प्रकार की साधना भक्ति, आनन्द और शान्ति से संयुक्त शुद्ध अंतःकरण की स्वाभाविक जन्मदात्री है। साधना का यह मार्ग भक्ति परक ही न था, अपितु भक्ति के माध्यम से मानवीय न्याय की साधना का युगान्तकारी प्रयास था।

 (ii)    संतकाव्य में राम : संत कवियों के राम सोपाधि ब्रह्म न होकर निरूपाधि ब्रह्म हैं। वे अवतार लेकर धरती पर नहीं आते, न ही थे दशरथ के सूत हैं। तुलसी (सगुण कवि) और कबीर (निर्गुण कवि) राम नाम के महात्मय को स्वीकार करते हैं किन्तु इनकी उपासना की पद्धतियों में अन्तर है। ‘राम’ नाम की समानता होने पर स्वरूपगत अन्तर का मुख्य कारण ‘लीला’ और ‘अवतार’ का अन्तर है। तुलसी के राम अवतारी है, अवतार लेकर शक्ति, लीला आदि से भक्तों की इच्छापूर्ति करते हैं। निर्गुण कवियों के ‘राम’ ब्रह्मस्वरूप हैं। वे अगम, अगोचर, अतिन्द्रीय, अविनाशी, अनिवर्चनीय हैं। ये जन्म मरण से परे हैं।

          जाके मुहँ माया नहीं, नाहीं रूप कुरूप।

          पुहुप बास ले पातरा, ऐसा तत्त्व अनूप।।

(iii)    सतगुरु की महत्ता : संत कवियों ने सांसारिक माया के आवश्यक से अतीत परब्रह्म निरूपाधि ईश्वर के साक्षात्कार के लिए सद्गुरु के महत्त्व को स्वीकारा है। यह सद्गुरु लोक वेद की असारता द्योतित करते हुए ज्ञान रूपी प्रकाश के दीप को प्रज्जवलित करता है। भक्ति के मार्ग पर सद्गुरु ही ऐसा है जो चंचल मन को पंगु बना देता है और तत्त्व में तत्वतीत को दिखा देता है। गुरु कृपा से ही शिष्य संसार के समस्त बंधनों से मुक्त हो सकता है। सन्त कवियों ने गुरु को मुक्ति के पर्याय रूप में स्वीकार किया है। कबीर गुरु को गोविंद से भी महत्त्वपूर्ण मानते हुए कहते हैं-

          गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लगूं पाय।

          बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय।।

संत कवियों ने ज्ञान भक्ति और योग आदि समस्त संदर्भो में गुरु के महत्त्व को मान्यता दी है।

(iv)    रहस्यवाद : संतकाव्य में रहस्यवाद शंकर के अद्वैतवाद, नाथों की योग साधना और सूफियों की प्रेमसाधना द्वारा आया है। अद्वैतवाद रहस्यवाद का प्राण है, जो मानता है कि आत्मा और परमात्मा वस्तुतः एक ही है, जिनके बीच माया का आवरण पड़ा हुआ है।

ज्ञानोदय होते ही अद्वैतवादी स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। रहस्य की चरम परिणति उस समय सामने आती है जब आत्मा और परमात्मा दोनों एकाकार हो जाते हैं-

          हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं,

          हरि न मरै हम काहे को मरिहैं।

रहस्यवादी का शरीर हर समय अलौकिक आनन्द में मग्न रहता है।

 (v)    सामाजिक चेतना : मध्यकालीन भक्तिकाव्य मूलतः सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में सामने आते हैं। संतों का समय राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक दृष्टि से उथल-पुथल का समय था। एक ओर हिन्दू समाज की शास्त्रीय धर्म पर आधारित वर्णाश्रमवादी व्यवस्था और दूसरी और इस्लाम की धार्मिक, कट्टरता उग्रता और सामाजिक विषमता थी। इन दोनों ही स्थितियों में व्यवस्था के दुष्चक्र में आम आदमी पिस रहा था। ऐसे समय में निर्गुणवादी संत कवियों ने उस दोहरे आचरण की व्यवस्था पर तिलमिला देने वाले प्रश्नों की बौछार की। उन्होंने स्पष्ट किया की सत्य विभाजित नहीं हो सकता।

समाज की निम्न समझी जाने वाली जातियों में जन्मतें कवियों ने समझौते का रास्ता छोड़कर विद्रोह का क्रांतिकारी मार्ग अपनाया। भक्ति ने इन कवियों में वह बल भर दिया कि ये डंके की चोट पर घोषित करते हैं कि उनकी जाति निम्न हैं-

          जाके कुटुम्ब ढोर ढोवंत फिरहिं अजहूँ बनारसी आसपास।

          आचार सहित विप्र करहि डंड उति तिन तनै रविदास दासानुदास ।।

समाज को सुख की नींद में सोया हुआ देख कबीर कहते हैं-

          सुखिया सब संसार है, खाते और सोवे।

          दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवे।।

संत कवियों की रचनाएँ सामाजिक अव्यवस्था, अनैतिकता तथा अनावश्यक विडम्बनाओं के विरोध में रची जाती थी।

अभिव्यंजना पक्ष :

(i) काव्य भाषा : संत कवियों की भाषा पर विचार करते समय प्रायः उसे अव्याकरणिक, अशुद्ध, अव्यवस्थित और अकाव्यात्मक कहा जाता है। संत कवियों की भाषा अपने समय की भाषा है, वह लोक व्यवहार की सादगी और उत्साह को समेटे हुए हैं। धर्म प्रचार हेतु संत कवि भ्रमण करते रहते थे जिस कारण उनकी भाषा में विभिन्न प्रांतीय शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन्हीं कारणों से इनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ या पंचमेल खिचड़ी कहा गया, जिसमें अवधी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली, पूर्वी हिन्दी, फारसी, अरबी, संस्कृत, राजस्थानी और पंजाबी भाषाओं का मेल है। संत काव्य मुक्तकाव्य रूप में ही अधिक प्राप्त होता है। इन्होंने साखी, दोहा और चौपाई शैली का प्रयोग किया है।

          का भाषा, का संस्कृत, प्रेम चाहिए सांच ।

          काम जो आवै कामरी, का लै करै कमांच ।।

(ii)     उलटबाँसी शैली : कबीर तथा अन्य निर्गुण कवियों की उलटबाँसीयाँ प्रसिद्ध हैं। पहले इसे ‘संध्या भाषा’ के नाम से जाना जाता था। ‘संध्या भाषा’ से तात्पर्य ऐसी भाषा से है जिसका कुछ अर्थ समझ में आए तथा कुछ अस्पष्ट हो, किन्तु इसके प्रतीक खुलने पर ज्ञान के दीपक से सब स्पष्ट हो जाए। कबीर के अनेक विचार उलटबाँसियों में अभिव्यक्त हुए हैं। उलटबाँसियों के निम्न प्रकार हो सकते हैं- संसार से संबंधित, प्रेम साधना से संबंधित, योग से संबंधित तथा आत्मा-परमात्मा से संबंधित। उलटबाँसियों में प्रतीकों का प्रयोग होता है तथा प्रतीक खुलने पर ही इनका अर्थ स्पष्ट होता है जैसे-

          मारिअ सासू ननद घरे शाली।

          माअ मरिअ कान्ह भइल कपाली।।

(iii)    प्रतीकात्मकता : संत कवियों ने योगी, सहजयानी तांत्रिकों से प्रश्न करने के लिए उनकी ही प्रतीकात्मक भाषा को काव्य का माध्यम बनाया। इसमें उन्होंने आत्मा, परमात्मा या संसार आदि के लिए कमलिनी, सरोवर, जब नागिन आदि प्रतीकों की व्यवस्था की है। संत साहित्य में योग साधना में विभिन्न अर्थों के लिए भी प्रतीकों की योजना की गई है।

(iv)    छंद : संत कवियों ने विविध छंदों में रचना करके भी कविता में वैविध्य का परिचय दिया है। उन्होंने प्रायः रमैनी में दोहा, चौपाई और सोरठा का प्रयोग किया है। साखी अधिकतर दोहों में मिलती है। सबद में राग-रागनियों और पदों का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त सोरठा, सार, हरिपद, चौंतीसी, बेली, कवित्त, कुंडलियाँ आदि छंद भी संतों की बनी में मिलते हैं। संतों के लिए छंद साध्य नहीं थे, साधक मात्र थे।

(v)     काव्य रूप : संतों का सारा साहित्य मुक्तों के रूप में उपलब्ध है। मुक्तक काव्य के अन्तर्गत सबसे अधिक साखी, सबद और रमैनी की रचना की गई। वे जिन अन्तःसाधनात्मक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करना चाहते थे, उनके लिए मुक्तक शैली ही उपयुक्त थी।

  • प्रमुख संत कवि : संत साहित्य में योगदान देने वाले कुछ प्रमुख संत और उनके साहित्य के विषय एवं विशेषताओं का उल्लेखः

1.       कबीरदास : (1398-1518)

संतमत में सर्वाधिक क्रांतिकारी व्यक्तित्व कबीर का है, उनकी भक्ति में एक तरफ से सघन अनुभूति, भावप्रवणता, तन्मयता दिखाई पड़ती है, तो दूसरी तरफ उनकी वाणी में सम्प्रदाय, जाति व्यवस्था, कर्मकाण्ड के प्रति फटकार सुनाई पड़ती है। कबीर के गुरु रामानंद को स्वीकारा जाता है। किन्तु उनके ‘राम’ रामनंद के ‘राम’ नहीं हैं। कबीर की वाणियों का संग्रह बीजक कहलाता है, जिसका संग्रह उनके शिष्य धर्मदास ने 1464 ई. में किया। बीजक के तीन भाग किए गए हैं- रमैनी, सबद और साखी। रमैनी और सबद गेय पद में है, जिसकी भाषा ब्रजभाषा के निकट है। साखी दोहों में है, जिसकी भाषा राजस्थानी, पंजाबी, मिली खड़ी बोली है। कबीर की बानियों का सबसे पुराना नमूना ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में मिलता है।

2.       रैदास : (15वीं शताब्दी)

रामानंद जी के 12 शिष्यों में रैदास भी माने जाते हैं, उन्होंने अपने एक पद में कबीर और सेन का उल्लेख किया है। जिससे स्पष्ट हो जाता है कि वे कबीर से छोटे थे, अनुमानत: 15वीं शती उनका समय रहा होगा। प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई ने कई स्थानों पर इन्हें अपना गुरु बताया है। धन्ना को भी रैदास का शिष्य बताया जाता है।

रैदास की भक्ति का ढाँचा निर्गुणवादियों का ही है, किन्तु उनका स्वर कबीर जैसा आक्रामक नहीं है। रैदास की कविता की विशेषता उनकी निरीहता है, निरीहता के साथ-साथ कुंठाहीनता का भाव द्रष्टव्य है। भक्ति भावना ने उनमें वह बल भर दिया जिसके आधार पर वह डंके की चोट पर घोषित कर सके कि उनके कुटुंबी आज भी बनारस के आस-पास दोर (मुर्दा पशु ढोते हैं) और दासानुदास रैदास उन्हीं का वशंज है:-

          जोक कुटुंब सब ढ़ोर ढोवंत, फिरहीं अजहुँ बनारसी आसपास।

          आचार सहित बिप्र करहिं डंडउति, तिन तनै रविदास दासानुदास।।

रैदास की भाषा सरल, प्रवाहमयी और गेयता के गुणों से युक्त है।

3.       गुरुनानक (1469-1538)

गुरुनानक ने सिख धर्म का प्रवर्तन किया। इन्होंने हिन्दू-मुसलमान दोनों की समान धार्मिक उपासना पर बल दिया, वर्णाश्रम व्यवस्था और कर्मकांड का विरोध करके निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। नानक की बानियों का कथ्य प्राय: कबीर का ही है, किंतु नानक पहले संत है, जिन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध आवाज उठाई, इसके अलावा समूची संत परंपरा में नानक अकेले हैं, जो स्त्रियों की निंदा नहीं करते हैं, वह गृहस्थ धर्म में नारियों की प्रतिष्ठा करते हैं।

गुरुननाकदेव की प्रमुख रचनाएँ- जपुजी, आसदीबार, रहिरास और सोहिला है जो गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। गुरुनानक ने पंजाबी के साथ हिन्दी में भी कविताएँ की, इनकी हिन्दी में ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों का मेल है। इनके संपूर्ण काव्य में शांत रस की निर्बाध धारा प्रवाहित हुई है।

4.       दादूदयाल (1544-1603)

दादू पंथ के प्रर्वतक दादूदयाल का जन्म गुजरात के अहमदाबाद नगर में माना जाता है। इनकी मृत्यु राजस्थान प्रान्त के नराणा गाँव में हुई, जहाँ इनके अनुयायियों का प्रधान मठ ‘दादू द्वार’ वर्तमान है। दादू को ‘परम ब्रह्म सम्प्रदाय’ का प्रवर्तक माना जाता है, बाद में इसे ही ‘दादूपंथ’ के नाम से संबोधित किया गया। इनकी बानियों का संग्रह ‘हरडे वाणी’ के नाम से जगन्नथ दास और संतदास ने किया। कालांतर में रज्जब ने इसका सम्पादन ‘अंगवधू’ नाम से किया। दादू की एक अन्य रचना कायाबेली है।

दादू की कविता जनसामान्य को ध्यान में रखकर लिखी गई है, अतएव सरल एवं सहज हैं। कबीर की भाँति उन्होंने भी निर्गुण निराकार भगवान को वैयक्तिक भावनाओं का विषय बनाया, उनकी रचनाओं में इस्लामी साधना के शब्दों का प्रयोग खुलकर हुआ है। उनकी भाषा राजस्थानी से प्रभावित हिन्दी है, इसमें अरबी-फारसी के काफी शब्द आए हैं, फिर भी वह सहज और सुगम है।

          काम कल्पना कदे न कीजै पूरन ब्रह्म पिचारा।

          एहि पथि पहुंचि पार गहि दादू सो तब सहज संभारा।।

5.       मलूकदास (1574-1682)

मलूकदास का जन्म स्थान इलाहाबाद बताया जाता है। मलूकदास औरंगजेब के समय में दिल के अंदर खोजने वाले निर्गुण मत के नामी संतों में हुए हैं। इनके प्रमुख ग्रंथ हैं- ज्ञानबोध, ज्ञानरोहिछ, रामअवतारलीला, रत्नखान, भक्ति विवेक, सुखसागर, ब्रजलीला, धुव्रचरित आदि। जिनमें रत्नखान और ज्ञानबोध दो प्रसिद्ध पुस्तके हैं। इन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों को समान भाव से उपदेश दिया। इन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों को समान भाव से उपदेश दिया। इन्होंने अवधि और ब्रजभाषा में काव्य रचना की तथा इनकी भाषा में अरबी, फारसी के शब्दों का प्रयोग मिलता है। कुल मिलाकर इनकी भाषा व्यवस्थित और सुन्दर है। आलसियों का यह मंत्रः

          अजगर करे न चाकरी, पंछी को न काम ।

          दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।

इन्हीं का है।

6.       सुंदरदास (1596–1689)

संत सुंदरदास दादू के शिष्य थे। निर्गुण संत कवियों में सुंदरदास सर्वाधिक शास्त्रज्ञ एवं शिक्षित थे। उनकी कविता कलात्मकता से युक्त और भाषा परिमार्जित है। इनके 42 ग्रंथ कहे जाते हैं, जिनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना ‘सुंदरविलास’ है। समाज की रीति, नीति तथा भक्ति पर इन्होंने विनोदपूर्ण उक्तियाँ कहीं है। सुंदरदास की कविता में शास्त्रीय अनुशास देखने को मिलता है। उन्होंने कविता के लिए अलंकार और छंद का कुशल प्रयोग किया है। सुंदरदास ने अपने काव्य में निर्गुण-सगुण विवाद को तार्किक रूप में रखा, लोकजीवन की रूढ़ियों का विरोध और विद्रह का स्वर उनके यहाँ नहीं मिलता। उनके काव्य से पता चलता है कि धीरे-धीरे निर्गुण भक्ति का आक्रोश मंद पड़ रहा था। निर्गुण भक्ति काव्य शास्त्रीय बंधन में बँधने को तैयार होने लगा था।

          भूख सहि रहि रूख तटे पर सुंदरदास सबै दुख भारी।

          डाँसन छाँड़ि कै कासन ऊपर आसन मारयो तै आस न मारी।।

निर्गुण भक्त कवि होने पर भी उन्होंने ईश्वर के सगुण स्वरूप को मान्यता दी है। इनकी रचनाओं की भाषा राजस्थानी है, जिसमें गुजराती, सिंधी, पंजाबी, फारसी आदि का प्रयोग भी मिलते हैं।

7.       रज्जब (1567-1689)

संत रज्जब का पूरा नाम रज्जब अली खाँ था। रज्जब दादू के शिष्य थे। ये भी राजस्थान के थे, इनकी कविता में सुंदरदास कवि शास्त्रीयता का तो अभाव है, किन्तु पं. हजारीप्रसा द्विवेदी के अनुसार ‘रज्जब दास निश्चय ही दादू को शिष्यों में सबसे अधिक कवित्व लेकर उत्पन्न हुए थे। उनकी कविताएँ भावपन्न, साफ और सहज है भाषा पर राजस्थानी प्रभाव अधिक है और इस्लामी साधना के शब्द भी अपेक्षाकृत अधिक है। इनकी रचनाएँ ‘रज्जब-बानी’ में संग्रहीत है।

          संतो, मगन भया मन मेरा।

          अह निसि सदा एक रस लागा, दिया दरीवै डेरा।।

अन्य प्रमुख संत : जंभनाथ (1451-1523) गुरु बाबा गोरखनाथ, हरिदास निरंजनी (1455-1543) गुरु-प्रागदास, सींगा (1519-1659), गुरुमनरंगीर, दरियासाहब, लालदास (1540-1648) गुरु-गदन चिशती।

प्रमुख महिला संत : सहजो बाई, दयाबाई, बाबरी साहिबा।

निर्गुण : प्रेमात्रयी सूफी काव्यधारा

मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में संत काव्यधारा के पश्चात् सूफी काव्यान्दोलन अस्तित्व में आता है। सूफीमत इस्लामधर्म की एक उदार शाखा है जिसका उदय इस्लाम के अस्तित्व में आने के बाद हुआ। भारत में सूफियों के चार प्रमुख सम्प्रदाय हुए- चिश्ती सम्प्रदाय (12वीं शती) जिसकी स्थापना मुहन्नुछीन निश्ती ने की। 2. सुहरावर्दी सम्प्रदाय (12वीं शती) जिसका प्रवर्तन जलालुद्दीन सुर्खपोश ने किया। 3. कादरी सम्प्रदाय (15वीं शती) जिसके प्रवर्तक अब्दुल कादिर जीलानी रहे। 4. नक्शबंदी सम्प्रदाय (16वीं शती) का प्रवर्तन वहा अलादीन नक्शबंद ने किया।

इन सूफी संतों के उच्च विचार, सादा जीवन और व्यापक प्रेम के तत्त्वों ने भारतीय जन-जीवन को आकृष्ट किया। इन सूफियों ने ‘अनहलक’ अर्थात् ‘मैं ब्रह्म हूँ’ की घोषणा की। ठीक यही बात भारत के अद्वैतवादी भी कह रहे थे। इसलिए अपने दार्शनिक आधार के कारण सूफी संत भी भारतीय भक्ति आंदोलन में परिगणित किए गए।

सूफी शब्द की व्युत्पति सफा, सूफ, सफ, सोफिया आदि शब्दों से मानी जाती है जिसके अर्थ क्रमशः पंक्ति, ऊन, मस्जिद का चबूतरा तथा ज्ञान माना जाता है। सूफी सम्प्रदाय आध्यात्मिक साधना का सरल, निश्छल प्रेममय और धर्मनिरपेक्ष मार्ग लेकर प्रस्तुत होता है। सूफियों की साधना में चार सोपानों का उल्लेख मिलता है- शरीयत, तरीकत, हकीकत और मारीफत । इन सोपानों को क्रमशः कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड परमात्मा से साक्षात्कार और मोक्ष की अवस्था मानी जा सकती है। सूफी काव्य-परम्परा के पहले कवि मुल्ला दाऊद हैं। इनकी रचना का नाम ‘चंदायन’ (1379 ई.) है। चंदायन की भाषा परिष्कृत अवधी है। दूसरे प्रसिद्ध कवि मलिक मुहम्मद जायसी है। ‘पद्मावत’ (1540 ई.) इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है।

  • सूफी काव्य की विशेषताएँ

1)       सूफी कवियों ने हिंदू साधुओं के रहन-सहन, रंग-ढंग, भाषा और विचार-शैली को अपनाकर अपने हाल की उदारता का परिचय दिया। अपनी स्नेहशक्ति प्रेममाधुरी युक्त वाणी से भारतीय जीवन की गहराई को छुआ। आतंकित और पीड़ित जनता के घावों को मरहम लगाने का कार्य करके उन्होंने हिंदू-भवन के भेद-भाव को दूर करने में योग दिया। इन्होंने अपनी कथाओं का आधार हिंदू जन-जीवन में प्रचलित प्रेम-कहानियों को बनाया। इनमें हिंदू घरों का बहुत ही स्वाभाविक व वास्तविक चित्रण मिलता है।

2)       सूफी रहस्यवाद : ज्ञान के क्षेत्र का अद्वैतवाद भावना के क्षेत्र में आकर रहस्यवाद कहलाता है। रहस्यवाद अपनी प्रकृति से दो प्रकार का होता है साधनात्मक रहस्यवाद और भावनात्मक रहस्यवाद । सूफियों का रहस्यवाद सरस और भावनात्मक है। इन्होंने आत्मा को पुरुष और परमात्मा को नारी के रूप में चित्रित किया है। साधक के मार्ग की कठिनाइयों को नायक के मार्ग की कठिनाइयों के रूप में चित्रित किया गया है। सूफी शैतान को आत्मा-परमात्मा के मिलन में बाधक समझते हैं और इस शैतान रूपी बाधा को सच्चा गुरु की दूर कर सकता है। गुरु की सहायता लेकर साधना मार्ग पर आरुढ़ होकर ईश्वर तक पहुँचने का प्रयत्न करता है। सूफी मत के अनुसार ईश्वर एक है, आत्मा उसी का अंश है। इस प्रकार रहस्यवाद सूफियों के यहाँ अपने संपूर्ण रूप में दिखाई देता है।

3)       काव्यगत विशेषताएँ : प्रेम चित्रण में सूफी कवियों ने भारतीय और फारसी दोनों शैलियों को अपनाया। हिन्दी काव्यधारा के प्रभाववश उन्हें महाकाव्य पद्धति के अनुसार लिखा गया। पद्मावत में ग्रीष्म-वर्णन, नगर–वर्णन, विरह वर्णन, युद्ध वर्णन आदि भारतीय महाकाव्य शैली में लिखे गए हैं।

सूफियों के काव्य में सौंदर्य को प्रेम के उद्रेक का मूल कारण बताया गया है। प्रेमारंभ का मूल कारण, नायिका का अनुपम सौंदर्य ‘खुदा के नूर’ की ओर संकेत करता है। प्रेम के इस विशिष्ट प्रेम-स्वरूप के माध्यम से इन्होंने लौकिक के साथ लोकोत्तर अलौकिक प्रेम की व्यंजना की है। सूफी कवियों ने नायिका को अलौकिक शक्ति का प्रतीक मानकर उसमें अनुपम सौंदर्य का विधान किया है। सौंदर्य निरूपण में इन्होंने शरीर और मन दोनों के सौंदर्य का चित्रण किया है। प्रेम की शक्ति जीवन के तमाम भवों में सर्वोपरी है, सूफी कविता का प्रेम-तत्त्व भी अन्य भावों को ढक लेता है-

          प्रीति बेलि जिन अरूझै कोई । अरूझै, मुए न छूटै सोई।

          प्रीति बेलि ऐसै वन डाढ़ा। पलुहत सुख, बढ़त दुख बाढ़ा।।

4.       चरित्र चित्रण : सूफी प्रेमाख्यानों में उपलब्ध पात्रों को उनकी प्रकृति के आधार पर विविध भागों में बाँटा जा सकता है-

 (i)     मानवीय पात्र तथा अमानवीय पात्र

(ii)      मुख्य पात्र तथा अनावश्यक पात्र

(iii)     ऐतिहासिक पात्र तथा काल्पनिक पात्र।

मानवीय श्रेणी के पात्रों में राजकुमार, राजकुमारी तथा उनसे संबंधित अन्य पात्र आते हैं। मानवीय चरित्र की तमाम विशेषताओं से यह पात्र युक्त दिखाई पड़ते हैं। प्रेमाख्यानों में कथारूपक के निर्वाह के लिए नायक की नायिका की अपेक्षा अधिक अधीर दिखाया गया है। परिवेश की संदर्भ सापेक्षता का बोध ससूफी कवियों को था यही कारण है उनके मानवीय-चरित्र भारतीय परिवेश की उपज प्रतीत होते हैं।

मानवेतर प्राणियों के वर्ग में असुर, राक्षस, बैताल, हंस, तोता, अप्सराएँ, परियाँ आदि आते हैं। ये पात्र स्थिति विशेष को आगे बढ़ाने में सहायक की भूमिका निभाते हैं। असुर या राक्षस क्रुर, तोता तथा हंस विद्वान और अ प्सरा या परी सहृदय रूप में चित्रित हुए हैं। मुख्य पात्र ऐतिहासिक एवं काल्पनिक दोनों प्रकार के रहे हैं। नायक-नायिका यदि ऐतिहासिक पात्र हैं तो कतिपय काल्पनिक पात्रों की योजना भी कथा-विधान के अन्तर्गत की गई है।

सूफी प्रेमगाथाओं में लोक और शिष्ट, कल्पना और इतिहास का सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है।

5.       कथानाक रूढ़ियाँ : प्रेमाख्यान काव्य में कथानक को गति देने के लिए कथानक में रूढ़ियों का प्रयोग किया गया है। ये कथानक रूढ़ियाँ भारतीय साहित्य परम्परा के साथ-साथ ईरानी साहित्य परम्परा से भी ली गई है। जैसे- चित्र-दर्शन, शुकसारिका आदि द्वारा नायिका का रूप श्रवण कर नायक का उस पर आसक्त होना, मंदिर में प्रिय युगल का मिलन आदि भारतीय कथानक रूढ़ियाँ हैं तथा प्रेम-व्यापार में परियों और देवों का सहयोग, उड़ने वाली राजकुमारियाँ आदि ईरानी साहित्य की कथानक रूढ़ियाँ हैं।

6.       शृंगार पक्ष : सभी प्रेमाख्यानों में प्रधानतः शृंगार के दोनों पक्षों संयोग तथा वियोग का चित्रण सुंदर रूप में हुआ है। परन्तु वियोग पक्ष का वर्णन अधिक मार्मिक बन पड़ा है। अन्य रस गौण हैं। पद्मावत में वीररस का समावेश मिलता है।

अभिव्यंजना पक्ष :

(i) काव्य रूप : काव्य के दो प्रधान रूपों में से सूफी प्रेमाख्यानों की रचना प्रबंध रूप में की गई है। प्रबंध काव्य के किस रूप के अन्तर्गत इन्हें रखा जाए, यह समस्या आलोचकों के सामने आती है। इन्हें कभी फारसी प्रबंध यानी मसनवियों के अंतर्गत रखा गया है तो कभी भारतीय कथा-काव्य की परंपरा में। आचार्य शुक्ल ने इनका संबंध फारसी की मसनवियों से माना है कि सारा काव्य एक ही मसनवी छंद में हो पर परंपरा के अनुसार उसमें कथारंभ के पहले ईश्वर स्तुति, पैंगबर की वंदना और उस समय के राजा की प्रशंसा होनी चाहिए। ये बाते पद्मावत, इंद्रावत, मृगावती इत्यादि सब में पाई जाती है।

अधिकतर विद्वानों ने सूफी प्रेमाख्यानों की रचना मसनवी के अंतर्गत ही माना है।

(ii)     काव्य शैली : सूफी प्रेमाख्यानक कवियों ने विविध काव्य-शैलियों का संदर्भगत और विषयानुरूप प्रयोग किया है। लोक-रंगत के कारण वस्तु-वर्णन प्रायः इतिवृतात्मक, अभिधापरक शैली में किए गए हैं। लोक जीवन के विविध रूपों में अत्युक्ति, अतिश्योक्ति आदि का भी यथासंभव सुंदर प्रयोग किया गया है। मुख्यतः प्रकृति, नारी सौंदर्य, विरह वेदना के प्रसंगों में इस शैली का उपयोग किया गया है। सूफी काव्य में प्रयुक्त दूसरी शैली प्रतीकात्मक है। लौकिक प्रेम-व्यापारों के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना करने वाले थे आख्यान काव्य अपनी प्रकृति से कथा-रूपक हैं। सभी आख्यानों के ऐतिहासिक, काल्पनिक पात्र प्रतीकात्मक भूमिका में सामने आते हैं। अलाउद्दीन, रत्नसेन, पद्मावती, हीरामन तोता, नागमती के अपने अपने प्रतीकार्थ हैं

          सिंघल दीप पदुमिनी रानी। रतनसेन चितउर गढ़ आरि।

          अलाउद्दीन दिल्ली सुल्ताना। राधौ चेतन कीन्ह बखाना।।

(iii)    काव्य भाषा : अधिकांश सूफी कवि देश के पूर्वी भागों के निवासी थे, अतः इनकी काव्य भाषा अवधी रही। अवधी का लोक-प्रचलित सरल एवं सरस रूप ही इनके यहाँ प्रयोग में लाया गया है पर भाषा पर अधिकार प्रतिनिधि कवियों के यहाँ ही दिखाई देता है। अवधी का निजी मिजाज इनकी भाषा में हर कदम पर देखा जा सकता है। शुक्ल जी ने जायसी की भाषा के संबंध में लिखा- “जायसी की भाषा बहुत ही मधुर है, पर उसका माधुर्य निराला है। वह माधुर्य भाषा का माधुर्य है, संस्कृत का माधुर्य नहीं। वह संस्कृत की कोमलकांत पदावली पर अवलंबित नहीं। उसमें अवधी अपनी निज की स्वाभाविक मिठास लिए हुए हैं।

इस परंपरा में कतिपय आख्यान राजस्थानी एवं ब्रजभाषा में भी लिखे गए। हंसावली, लखनसेन पद्मावती कथा, माधवानलकामकंदला आदि राजस्थानी में तथा नंददास की रूपमंजरी और जन कवि के प्रेमाख्यान ब्रजभाषा में रचे गए हैं। लोकप्रचलित देशज एवं विदेशी शब्द भी इनके यहाँ देखे जा सकते हैं। इनमें अरबी, फारसी, तुर्की, तद्भव, भोजपुरी आदि भाषा के शब्द प्रमुख हैं।

 (iv)   छंद : छंद प्रयोग की दृष्टि से भी इन्होंने फारसी की बाहरी को अपनाकर भाषा के अपने छंद विधान को अपनाया है। इनके द्वारा प्रयुक्त मुख्य छंद चौपाई दोहा छंद है। इनके अतिरिक्त सूफी कवियों के यहाँ सोरठा, बरवै, कवित्त, सवैया, कुण्डलियाँ तथा झूलना का प्रयोग दिखाई पड़ता है।

  • सूफी काव्यधारा के प्रमुख कवि व उनकी रचनाएँ

 (1)    मुल्ला दाऊद : मुल्ला दाऊद या मौलाना दाऊद रचना ‘चंदायन’ से सूफी प्रेमाख्यान काव्य परंपरा का आरंभ माना जाता है। इस ग्रंथ की रचना 379 ई. में हुई थी। यह लोर या लोरिक तथा चंदा की प्रेमकथा है। विषयवस्तु की दृष्टि से इसमें भारतीय प्रेमाख्यानों की विभिन्न प्रवृत्तियों का निरूपण हुआ है। इसमें भी सूफी रचनाओं के समान लोक प्रचलित विश्वासों के साथ-साथ परमतत्त्व से प्रेम की व्यंजना की गई है। चंदायन के छंद से एक दोहा उद्धृत पियर पात जस बन जर, रहेउँ काँप कुंभलाई। विरह पवन जो डोलेउ, टूट परेउँ धहराई।।

(2)     कुतुबन : कुतुबन की रचना ‘मृगावती’ जिसका रचनाकाल 1501 ई. है चौपाई-दोहे के क्रम में रचा गया है। इसमें चंद्रनगर के राजा गणपति देव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारी की कन्या मृगावती की प्रेमकथा का वर्णन है। इस कहानी के माध्यम से कवि ने प्रेममार्गी के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत्प्रेम का स्वरूप दिखाया है। बीच-बीच में सूफियों की शैली पर बड़े सुंदर रहस्यमय आध्यात्मिक आभास है। ग्रंथ की परिणति शांत रस में दिखाई गई है-

          रूकमिनि पुनि वैसहि मरि गई। कुलवंति सत सों सति भई।।

          बाहर वह भीतर वह होई। घर बाहर को रहै न जोई।।

 (3)    मलिक मुहम्मद जायसी : मलिक मुहम्मद ‘जायसी’ सूफी काव्यधारा (प्रेममार्गी शाखा) के प्रतिनिधि कवि थे। आचार्य शुक्ल इन्हें सूर और तुलसी के समक्ष मानते हैं। जायसी बड़े कुरूप थे। कहते हैं कि एक बार बादशाह शेरशाह ने कुरूपता की हँसी उड़ाई थी। जायसी ने अपने ऊपर शेर शाह को हँसते हुए देखकर कहा

मोहिका हँसेसि कि कोइरहि?” अर्थात् तुम मुझ पर हँस रहे हो या मुझे बनाने वाले कुम्हार (अल्लाह) पर। इसको सुन बादशाह बहुत लज्तित हुए।

जायसी सूफी साधकों एवं कवियों के सिरमौर हैं। प्रेममार्गी कवियों के इस प्रतिनिधि कवि की प्रमुख रचनाएँ- पद्मावत, अखरावट तथा आखिरी कलाम है। जिनमें सर्वप्रमुख ‘पद्मावत’ है। पद्मावत का रचना काल सन् 927 हिजरी (संवत 1540 ई.) में मानी गयी है-

          सन् नौ सै सत्ताइस अहा। कथा आरंभ बैन कवि कहा।

आचार्य शुक्ल ने इस कृति के संबंध में लिखा- “जायसी की अक्षय कीर्ति का आधार है ‘पद्मावत’ जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और ‘प्रेम की पीर’ से भरा हुआ था। क्या लोकपक्ष में क्या आध्यात्म पक्ष में दोनों और उसकी गूढ़ता, गंभीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देता है।”

इस कृति में राजा रत्नसेन और सिंहल द्वीप की पद्मावती के प्रेम का वर्णन किया गया है। प्रेमगाथा परंपरा की इस पौढ़ कृति में इतिहास और कल्पना का सुन्दर समन्वय देखते ही बनता है।

(4)     मंझन : मंझन की रचना का नाम ‘मधुमालती’ (संवत् 1545) है। मधुमालती नाम की अन्य रचनाओं का भी पता चलता है। लेकिन मंझन कृत मधुमालती जायसी के पद्मावत के पाँच वर्ष के बाद रची गई। जायसी ने अपने पूर्ववर्ती सूफी प्रेमाख्यानक ग्रंथों का उल्लेख करते हुए जिस मधुमालती का नाम लिया है, वह मंझन की रची हुई नहीं हैं। इस ग्रन्थ में कनेसर नगर के साथ प्रेम और पारस्परिक वियोग की कथा है। इस रचना में विरह-कथा के साथ आध्यात्मिक तथ्यों का निरूपण सुंदर ढंग से किया गया है।

(5)     उसमान : उसमान कवि की ‘चित्रावली’ सन् 1613 ई. में लिखी गई थी। इसका कथानक कल्पनाश्रित है। इसमें नेपाल के राजकुमार सुजान के चित्रावली के साथ विवाह का वर्णन अत्यंत सरस रूप में हुआ है। रचनाकार अपने रचनाविधान में जायसी से प्रभावित रहा है। इसमें सूफी और सूफी प्रेमाख्यानक इतर काव्य की परंपराओं और काव्य-रूढ़ियों का सुंदर प्रयोग हुआ है।

सूफी काव्यधारा के अन्य कवि : असाईत ‘हंसावली’ (1370 ई.), ईश्वरदास ‘सत्यवती कथा (1501 ई.), नंददास ‘रूपमंजरी’ (1568 ई.), शेख नबी ‘ज्ञानदीप’ (1619 ई.), कासिम शाह ‘हंस जवाहिर’ (1731 ई.). नूर मुहम्मद ‘इंद्रावती’ (1744 ई.), ‘अनुराग बांसुरी’ (1764)।

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