हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

भक्तिकाल की दार्शनिक पृष्ठभूमि

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हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल संवत 1375 से संवत 1700 तक माना जाता है। यह हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएँ इस युग में प्राप्त होती है। इस युग के परिप्रेक्ष्य पर विचार करते समय इतिहासकारों का ध्यान सबसे पहले उस भारतीय जनमानस पर जाता है, जो पिछले कई सौ वर्षों से युद्ध करते-करते जीवन से निराश हो चुका था। तद्नन्तर विदेशी मुस्लिम आक्रान्त द्वारा परितन्त्र होने के बाद इस समाज में स्वयं को और भी महत्त्वहीन समझा। ऐसे में तत्कालीन कवियों ने जनता की चित्तवृत्तियों को कुछ ऐसा आन्दोलित किया जिससे भारतीय समाज में एक बड़ी घटना सम्पन्न हुई।

13वीं सदी तक धर्म के क्षेत्र में बड़ी अस्तव्यस्तता आ गई। जनता में सिद्धों और योगियों आदि द्वारा प्रचलित अंधविश्वास फैल रहे थे। शास्त्रज्ञानसंपन्न वर्ग में भी रूढ़ियों और आडंबर की प्रधानता हो चली थी। ऐसे समय में भक्ति आंदोलन के रूप में ऐसा भारतव्यापी विशाल सांस्कृतिक आंदोलन उठा जिसने समाज में उत्कर्षविधायक सामाजिक और वैयक्तिक मूल्यों की प्रतिष्ठा की। भक्ति आंदोलन का आरंभ दक्षिण के अलवार संतों द्वारा 10वीं सदी के लगभग हुआ। वहाँ शंकराचार्य अद्वैतमत और मायावाद के विरोध में 4 वैष्णव संप्रदाय खड़े हुए। इन चारों संप्रदायों ने उत्तर भारत में विष्णु के अवतारों का प्रचार प्रसार किया। इनमें से एक के प्रवर्तक रामानुजाचार्य थे, जिनकी शिष्यपरंपरा में आने वाले रामानंद (14वीं शती) उत्तर भारत में राम भक्ति का प्रचार प्रसार किया। भक्ति के क्षेत्र में रामानंद ने ऊँच नीच का भेदभाव मिटाने पर विशेष बल दिया राम के सगुण और निर्गुण दो रूपों को मानने वाले दो भक्तों- कबीर और तुलसी को इन्होंने प्रभावित किया।

विष्णुस्वामी के शुद्धाद्वैतवाद मत का आधार लेकर इसी समय बल्लभाचार्य ने अपना पुष्टीमार्ग चलाया। 12वीं से 16वीं सदी तक पूरे देश में पुराणसम्मत कृष्णचरित के आधार पर कई सम्प्रदाय प्रतिष्ठित हुए जिनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली वल्लभव का पुष्टिमार्ग था। इस संप्रदाय में उपासना के लिए गोपीजनवल्लभ, लीलापुरुषोत्तम कृष्ण का मधुर रूप स्वीकृत हुआ। इस प्रकार उत्तर भारत में विष्णु के राम और कृष्ण अवतारों की प्रतिष्ठा हुई। यद्यपि भक्ति का स्रोत दक्षिण से आया तथापि उत्तर भारत की नई परिस्थितियों में उसने एक नया रूप भी ग्रहण किया। महाराष्ट्र के संत नामदेव ने 14वीं शताब्दी में भक्तिमत का सामान्य जनता में प्रचार किया जिसमें भगवान के सगुण और निर्गुण दोनों रूप गृहित थे। इस प्रकार इन विभिन्न मतों का आधार लेकर हिन्दी में निर्गुण और सगुण के नाम से भक्तिकाव्य की दो शाखाएँ साथ-साथ चलीं। निर्गुण मत के दो उपविभाग हुए- ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी। ज्ञानाश्रयी काव्यधारा को संत काव्यधारा कहा गया और प्रेमाश्रयी को सूफी काव्यधारा कहा गया। पहले के प्रतिनिधि कबीर और दूसरे के जायसी है। सगुण मत भी वो उपधाराओं में प्रवाहित हुआ- रामभक्ति और कृष्णभक्ति । पहले के प्रतिनिधि तुलसी हैं और दूसरे के सूरदास।

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