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प्रयोगवाद: परिवेश और प्रवृतियाँ

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सामान्य परिचय:

सन् 1943 में अज्ञेय द्वारा प्रकाशित ‘तारसप्तक’ के साथ ही प्रयोगवाद का आरम्भ माना जाता है। वास्तव में प्रगतिवाद विचारधारा अपने विकसित होने की अवस्था में क्रमशः एकांगी होती गयी जिससे एक प्रकार की दर्शनात्मकता का  प्रभाव उस पर पड़ने लगा। प्रायः इसी भाव भूमि पर प्रयोगवाद का अंकुरण हुआ जो प्रगतिवाद की ही तरह यथार्थ की अभिव्यक्ति को अपना आदर्श मानता था। ये दोनों ही वाद मूल रूप से छायावाद से प्रेरणा ग्रहण करते हैं और 1943 तक आते-आते यह नाम प्रचलन में आ गया। हिन्दी साहित्य कोश में इस प्रयोग के बारे में डॉ. लक्ष्मीकान्त वर्मा लिखते हैं कि “मान्य सत्य का परीक्षण और फिर परीक्षण द्वारा सत्य के नये आयामों का अन्वेषण, प्रयोग की मूल प्रवृत्ति परम्परागत स्थापनाओं से हटकर नयी दिशाओं की स्थापना करना है।” 

          तारसप्तक के प्रकाशन के समय अज्ञेय जी ने ‘प्रयोग’ शब्द और प्रयोग पर इतना बल दिया कि उनके काव्य को उस समय के प्रसिद्ध समीक्षकों नागेन्द्र, रामविलास शर्मा और नन्ददुलारे वाजपेयी इत्यादि ने प्रयोगवाद कहा जिसका निराकरण एवं स्पष्टीकरण अज्ञेय दूसरा सप्तक की भूमिका में देते हैं- “प्रयोग का कोई वाद नहीं होता ,प्रयोग न अपने आप में इष्ट या साध्य है, अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्धक और निरर्थक है, जितना हमें कवितावादी कहना।” अपने इन दोनों सप्तकों की भूमिकाओं में अज्ञेय कविता को लेकर कुछ नया कहना चाहते हैं, कुछ ऐसा जो उनके प्रयोग को पुरी तरह से व्यक्त नहीं कर पाता। उनका मानना है कि कविता प्रयोग विषय है, कवि की मौलिक समस्या सम्प्रेषण और साधारणीकरण की होती है। वास्तव में व्यक्ति सत्य को समाज सत्य बनाना एक बड़ी चुनौती होती है। इस मत के प्रबल समर्थक डॉ. केशरी कुमार का मानना है कि “प्रयोगवाद भाव और व्यंजना का स्थापत्य है, यह पूर्ववर्तियों की रीति को नकारता है और यहाँ तक कि दूसरों के ही नहीं अपनों के अनुकरण को भी त्याज्य समझता है। कविता इसीलिए मुक्त भाव की न होकर स्वच्छन्द भाव की होती है।” 

          जहाँ तक प्रयोगवादी की मुख्य प्रवृत्तियों का प्रश्न है, उसमें व्यक्तिवादिता, अनुभूतियों का नया मनोविज्ञान, परम्परा का अस्वीकार, महान के स्थान पर लघु की स्थापना आदि के संकेत विशेष रूप से मिलते हैं। प्रयोगवाद अस्तित्ववादी दर्शन से प्रभावित होकर तथा फ्रायड के विचारों को आत्मसात करते हुए साहित्य जगत में एक नये समाज की सृष्टि करता है। अपनी कविता “हरी घास पर क्षण भर” में अज्ञेय व्यक्ति को ही सर्वसमर्थ मानते हैं, साथ ही वे यह भी बताना नहीं भुलते कि अब इसी व्यक्ति ने नये सत्य की खोज के लिए नयी क्रान्ति उपस्थित करते हुए निश्चित अर्थ देने वाले प्रतीकों को खारिज कर दिया। वह कुछ अधिक चाहता है 

                    “ये उपमान मैले हो गये हैं,
                    देवता इन प्रतीकों से कर गये हैं कूच
                    कभी वासना अधिक घिसने से मुलग्मा छुट जाता है।” 

          पश्चिमी कविता में प्रचलित बिम्बों को प्रयोगवादी खुल कर प्रयोग करते हैं यहाँ तक कि समीक्षक कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं- “आधुनिक काव्य की  आलोचना की कसौटी में न तो रस अलंकार है न चरित्र-चित्रण बल्कि उसमें प्रयुक्त बिम्ब है।” 

प्रयोगवादी कविता की प्रवृत्तियाँ 

          प्रयोगवादी कविता में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ देखी गई है- 

1.       समसामयिक जीवन का यथार्थ चित्रण प्रयोगवादी कविता की भाव-वस्तु समसामयिक वस्तुओं और व्यापारों से उपजी है। रिक्शों के भोंपू की आवाज, लाउड स्पीकर का चीत्कार, मशीन के अलार्म की चीख, इंजन की सीटी आदि की यथावत अभिव्यक्ति इस कविता में मिलती है। नलिन विलोचन शर्मा ने बसंत वर्णन के प्रसंग में लाउड स्पीकर को अंकित किया। प्रत्युष-वर्णन में उन्होंने रिक्शों के भोंपू की आवाज का उल्लेख किया। एक अन्य स्थल पर रेल की इंजन की ध्वनि का उल्लेख किया है। मदन वात्स्यायन ने कारखानों में चलने वाली मशीनों की ध्वनि का ज्यों का त्यों उल्लेख किया हैं समसामयिकता के प्रति इनका इतना अधिक मोह है कि इन कवियों ने उपमान तथा बिम्बों का चयन भी समसामयिक युग के विभिन्न उपकरणों से किया है। भारतभूषण अग्रवाल ने लाउड स्पीकर तथा टाइपराइटर की ‘की’ को उपमान रूप में प्रस्तुत किया हैं रघुवीर सहाय ने भी पहिये और सिनेमा की रील के उपमानों को ग्रहण किया है। केसरी कुमार ने व्यवसायिक जीवन के उपमानों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार चिकित्सा तथा रसायन शास्त्र से अनेकों उपमान प्रयोगवादी कवियों ने ग्रहण किए हैं। गिरिजाकुमार माथुर की हब्श देश नामक कविता की निम्न पंक्तियाँ देखिए जिनमें औद्योगिक और रसायनिक युग को वाणी प्रदान की गई है- 

                    “उगल रही है खाने सोना,
                    अभ्रक, तांबा, जस्त, क्रोनियम
                    टीन, कोयला, लौह, प्लेटिनम
                    यूरेनियम अनमोल रसायन
                    कोपेक, सिल्क, कपास, अन्न-धन
                    द्रव्य फोसफैटो से पुरित!” 

2.       घोर अहंनिष्ठ वैयक्तिकता प्रयोगवादी कवि समाज चित्रण की अपेक्षा वैयक्तिक कुरूपता का प्रकाशन करके समाज के मध्यवर्गीय मानव की दुर्बलता का प्रकाशन करता है। मन की नग्न एवं अश्लील वृत्तियों का चित्रण करता है। अपनी असामाजिक एवं अहंवादी प्रकृति के अनुरूप मानव जगत के लघु और क्षुद्र प्राणियों को काव्य में स्थान देता है। भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता की प्रतिष्ठा करता है। कवि के मन की स्थिति, अनुभूति, विचारधारा तथा मान्यता इस कविता में विशेष रूप से अभिव्यक्त हुई है। व्यक्ति का केवल सामाजिक अस्तित्व ही नहीं  बल्कि उसकी अपनी भावनाओं का भी एक संसार है। इसलिए इस कविता में अधिक ईमानदारी के साथ कवि के निजी दर्द की अभिव्यक्ति हुई है। 

                    “मेरी अंतरात्मा का यह उद्वेलन
                    जो तुम्हें और तुम्हें और तुम्हें देखता है 
                    और अभिव्यक्ति के लिए तड़प उठता है
                    यही है मेरी स्थिति, यही मेरी शक्ति।” 

3.       विद्रोह का स्वर इस कविता में विद्रोह का स्वर एक ओर समाज और परंपरा से अलग होने के रूप में मिलता है और दूसरी ओर आत्मशक्ति के उद्घोष रूप में। परम्परा और रूढ़ि से मुक्ति पाने के लिए भवानी प्रसाद मिश्र कहते हैं- 

                    “ये किसी निश्चित नियम, क्रम की सरासर सीढ़ियाँ हैं
                    पाँव रखकर बढ़ रही जिस पर कि अपनी पीढ़ियाँ है
                    बिना सीढ़ी के बढ़ेंगे तीर के जैसे बढ़ेंगे।” 

          विद्रोह का दूसरा रूप चुनौती और ध्वंस की बलवती अभिव्यक्ति के रूप में मिलता है। भरतभूषण अग्रवाल में स्वयं का ज्ञान अधिक प्रबल हो उठा कि वे नियति को संघर्ष की चुनौती देते हुए कहते हैं 

                    “मैं छोड़कर पूजा
                    मैं खड़ा यहाँ तुझको पुकारता हूँ।” 

          आततायी सामाजिक परिवेश को चुनौती देते हुए अज्ञेय कहते हैं- 

                    “ठहर-ठहर आततायी! जरा सुन ले
                    मेरे क्रुद्ध वीर्य की पुकार आज सुन ले।” 

4.       वेदना की अनुभूति का प्रयोगप्रयोगवादी कवि वेदना से पलायन न करके, उसके सान्निध्य की अभिलाषा करते हैं। इसे उन्होंने दो रूपों में स्वीकार किया है, एक तो वेदना को सहन करने की लालसा और दूसरे वेदना या पीड़ा की अतल गहराइयों में बैठ कर नए अर्थ की उपलब्धि के रूप में। भरतभूषण अग्रवाल वेदना को उत्साहवर्धिनी मानते हैं- 

                    “पर न हिम्मत हार
                    प्रज्वलित है प्राणों में अब भी 
                    लौ उठा” 

          मुक्तिबोध की मान्यता है कि वेदना अथवा पीड़ा के अवशेष मानव की संघर्ष-शक्ति को उभारते हैं। 

5.       व्यंग्यव्यंग्य का गहरा पुट इस कविता की विशेषता रही है। आधुनिक  जीवन की विसंगतियों पर लोगों के बदलते हुए रूपों पर, सभ्यता के नाम पर फैले शोषण पर, राजनीति की कुटिल चालों पर, धर्म के व्यापारों पर, यह कविता व्यंग्य करती है। आज के जीवन का खोखलापन, स्वार्थपरता का भाव कवि के मन को खीझ से भर देता है। इसलिए वह इन पर गहरा व्यंग्य करता है। अज्ञेय की कविता ‘साँप’ में शहरी सभ्यता पर करारा व्यंग्य है- 

                    “सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं, न होगे,
                    नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया
                    विष कहाँ से पाया।” 

6.       भेदसपन प्रयोगवादी कवियों ने प्रयोग की लालसा में उन सभी कुरुचियों, विकृतियों तथा भद्दे दृश्यों को भी कविता में चित्रित किया है जो जीवन और समाज में व्याप्त रहे हैं, लेकिन उपेक्षित। इन्हें चित्रित करने के पीछे प्रयोगवादी कवियों का तर्क है कि जीवन में सभी कुछ सुंदर नहीं होता, बल्कि असुंदर और घृणित वस्तु तथा दृश्य भी जीवन से जुड़े रहते हैं। इसलिए जीवन की पूर्णता मेंये त्याज्य नहीं है और घिनौनी चीजों में सौंदर्य देखने के लिए विशेष साधना अपेक्षित है। इससे कविता में जुगुप्सा उत्पन्न होती है। अज्ञेय की कविता का एक उदाहरण देखिए- 

                    “निकटतर धंसती हुई छत, आड़ में निर्वेद
                    मूत्र-सिंचित मृत्तिका ने वृत में
                    तीन टांगें पर खड़ा नत ग्रीव
                    धैर्य, धन, गदहा” 

7.       काव्य शिल्प में नए प्रयोग शिल्प के क्षेत्र में प्रयोगवादी कवियों के काव्य में अपूर्व क्रांति दिखाई पड़ती है। मुक्तिबोध के काव्य में वक्रता से सरलता की ओर जाने की प्रवृत्ति संकेतों के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है। गिरिजाकुमार माथुर ने काव्य में विषय की अपेक्षा टेकनीक पर अधिक ध्यान दिया। भाषा, ध्वनि तथा छंद-विधान में उन्होंने नवीन प्रयोग किए। प्रभाकर माचवे ने नई अलंकार-योजना, बिम्ब-विधान और उपमानों के नए प्रयोग किए। अज्ञेय ने साधारणीकरण की दृष्टि से भाषा संबंधी नवीनता को अधिक महत्त्व दिया। शमशेर बहादुर सिंह ने फ्रांसीसी प्रतीकवादी कवियों के प्रभाव में पर्याप्त प्रयोग किए, जिनके कारण उन्हें कवियों का कवि कहा जाने लगा। स्पष्ट है कि प्रयोगवादी कवियों ने भाषा, लय, शब्द, बिम्ब तथा छंद-विधान संबंधी नए प्रयोगों पर बल दिया। 

8.       बिम्ब योजना प्रयोगवादी कविता में बिम्ब-योजना बड़ी सफलता के साथ की गई है। इस कविता से पूर्व की किसी कविता में इतने अधिक स्पष्ट बिम्ब उतरे हैं, इसमें, संदेह है। बिम्ब योजना के विषय में प्रयोगवादियों की बहुत बड़ी विशेषता यह है कि इनके बिम्ब नितान्त सजीव है। प्राकृतिक-बिम्बों का एक उदाहरण द्रष्टव्य है- 

                    “बूंद टपकी एक नभ से
                    किसी ने झूककर झरोखे से
                    कि जैसे हंस दिया हो।” 

          यहाँ बूंद टपकाने और झरोखे से झांककर हंसने में सादृश्य दिखाया गया है। झरोखे से हँसी देखने के लिए निगाह ऊपर उठती है और टपकती बूंद भी आकाश की ओर बरबस नेत्रों को खींच लेती है। इस बिम्ब में अनुभूति की सूक्ष्मता तथा गहराई दर्शनीय है। 

9.       नवीन शब्दचयन एक ओर शब्द-चयन में प्रयोगवादी कवि बहुत उदारता के साथ ग्रामीण, देशज तथा प्रचलित शब्दों को अपनाता है वहीं दूसरी ओर संस्कृत और अंग्रेज़ी का व्यापक प्रयोग भी करता है। व्याकरण के नियमों से चिपक कर रहना भी उसे सह्य नहीं। अतः भाषा के नए ढंग का नयापन आ गया है। इसमें नए क्रियापद भी बनते हैं। नए शब्दों में बतियाना, लम्बायित, बिलमान, अस्मिता, ईप्सा, क्लिन्त, इयत्ता, पारमिता आदि। इस प्रकार शब्दों को तोड़ा मरोड़ा गया है। इसके अलावा इन कवियों ने विज्ञान, दर्शन, मनोविज्ञान से भी शब्द ग्रहण किए हैं। 

10.     नवीनप्रतीक आज के जीवन और जगत के साथ-साथ आम आदमी को, वैज्ञानिक क्रियाओं को, शब्दों और प्रभावों को प्रयोगवादी कविता में स्थान दिया गया है। मनोविज्ञान से भी प्रतीक चुने गए हैं। कवियों ने सर्वथा पुराने प्रतीकों को त्याग कर नवीन प्रतीकों को ग्रहण किया है। मुक्तिबोध के प्रतीकों में ब्रह्मराक्षस, ओरांग-उटांग, गांधी, सुभाष, तिलक, रावण, वटवृक्ष आदि प्रसिद्ध प्रतीक है। नए प्रतीक जैसे प्यार का बल्ब फ्यूज हो गया, भी देखे जाते हैं। 

11.     छंदविधान प्रयोगवादियों ने छंद-विधान में तो आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है। यहाँ विभिन्न तरह के प्रयोग हुए हैं। छंदों के परम्परागत मात्रिक रूपों से उसका कोई संबंध नहीं रह गया है। इससे कविता में भी कभी लय और गति का अभाव उत्पन्न होता है और कभी उसमें काव्यात्मकता के स्थान पर गद्यात्मकता आ जाती है। एक ओर लोकगीतों की धुनों के आधार पर कविताओं की रचना हुई है वहीं दूसरी और उर्दू की रूबाइयों और गज़लों का प्रभाव भी कविता पर पड़ा है। अंग्रेज़ी के सॉनेट से मिलती-जुलती कविता भी इन कवियों ने लिखी। यह छंदहीन कविता मुक्तक छंद को अपनाती है। 

          भरतभूषण अग्रवाल की कविता का एक उदाहरण, जिसमें काव्य गद्यात्मक हो गया है- 

                    “तुम अमीर थी
                    इसलिए हमारी शादी न हो सकी 
                    मैं अमीर होता” 

          अज्ञेय की एक कविता का अंश जिसमें लोक-गीत के आधार पर सरल काव्य रचना की गई है-

                    “मेरा जिया हरसा
                    जो पिया, पानी बरसा
                    खड़-खड़ कर उठे पात
                    फड़क उठे गात।”

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक क्षेत्र में नवीनता का आग्रह प्रयोगवाद की उपलब्धि है। इसी के चलते कहीं-कहीं यह कविता दुरूह भी हो गई है। इसके लिए डॉ. नागेन्द्र ने पाँच कारणों को प्रमुख माना है-

1)       भावतत्त्व और काव्यानुभूति के मध्य रागात्मक के स्थान पर बुद्धिगत संबंध,
2)       साधारणीकरण का त्याग,
3)       उपचेतन मन के खंड अनुभवों का यथावत चित्रण,
4)       भाषा का एकांत एवं अनर्गल प्रयोग तथा
5)       नूतनता का सर्वग्राही मोह।

प्रयोगवादी मुख्य कवि 

          प्रयोगवादी कविता के अन्तर्गत जिन मुख्य कवियों को सम्मिलित किया जाता है, उनमें अज्ञेय के अतिरिक्त मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर, भारतभूषण अग्रवाल, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती व नरेश मेहता के नाम लिये जा सकते हैं। इन रचनाकारों की कृतियों से गुजरती हुई प्रयोगवाद की धारा के दर्शन हमें होते हैं। अज्ञेय सबसे पहले छायावादी संस्कारों की कविता को सामाजिकता के सन्दर्भ में देखने का प्रयत्न करते हैं। उनका मानना है कि व्यक्ति, प्रकृति और प्रेम के विभिन्न स्वरूपों का निदर्शन तभी हो सकता है जब रचनाकार आमजन तक पहुँचे। 

                    “जो भी जहाँ भी पिसता है,
                    पीड़ित श्रमरत मानव
                    उसकी मैं कथा हूँ।” 

          उनकी एक अन्य दृष्टि निरन्तर क्रान्ति की ओर लगी रहती है, ऐसी रचनाओं में ‘यह दीप अकेला’ और ‘नदी के द्वीप’ महत्त्वपूर्ण है। संभवतः इसीलिए द्वीप होना स्वीकार रहता हे न कि धाय की तरह से बहकर स्वयं को नष्ट कर देना। 

                    हम नदी के द्वीप है, धारा नहीं।” 

                    कवि गिरिजा कुमार माथुर प्रकृति के साथ-साथ रूमानी परम्परा के  रचनाकार लगते हैं, जबकि प्रभाकर माचवे व्यंग्य को प्रधानता देते हैं। उनकी कुछ प्रसिद्ध कविताओं में ‘चिट्ठी मिसेज राधा के नाम’, ‘अमरूद इलाहाबादी’, ‘गाँजा-नीति’ और ‘लाली पॉप’ आदि हैं। अपनी भाषा को आमजनता के निकट ले आने के लिए वे भावानुकूल परिवर्तन करते हैं और आमजन की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानते हैं। 

                    “नोन, तेल, लकड़ी की फिक्र में लगे धुन से,
                    मकड़ी के जाले से कोल्हू के बैल से,
                    मकाँ नहीं रहने को फिर भी ये धुन से
                    गँदे अँधियारे और बदबू भरे दड़बों में जनते हैं बच्चे।” 

          मुक्तिबोध को प्रयोगवादी कविता का प्रायः सबसे सशक्त कवि माना जा सकता है, इनकी रचनाओं में जीवन की क्षणभंगुरता, अस्मिता की खोज, विराठ जिजीविषा तथा चेतन-अचेतन मन की तमाम स्थितियाँ चित्रित होती हैं। मध्य और निम्न मध्यवर्ग की संवेदनशीलता सीधे-सीधे इनकी कविताओं में दिखायी पड़ती है- 

                    “भूख है दिल में दिमाग को फाका,
                    झूठी है बुद्धियाँ, झूठी आत्मशुद्धियाँ,
                    साझे हैं खतरनाक, समझौते भयानक बदरंग खाका।” 

          भारतभूषण अग्रवाल साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित लगते हैं, जबकि रघुवीर सहाय ऐसे रचनाकार है जो प्रतीकों और कल्पनाओं की बात करते हैं। ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिका का वर्षों तक सम्पादन करने वाले धर्मवीर भारती अपनी  प्रभाव क्षमता का प्रयोग रसोद्रेक के लिए करते हैं। नरेश मेहता भी प्रयोगों पर बल देते हैं। वे भारतीय संस्कृत के चित्रों में आधुनिकता का रंग करना चाहते हैं 

                    “उदयाचल से किरन धेनुएँ,
                    हाँक ला रहा वह प्रभात का ग्वाला।” 

          सारांशतः यह कहा जा सकता है कि शमशेर, केदारनाथ सिंह और भवानी प्रसाद मिश्र जैसे सशक्त हस्ताक्षरों वाली यह काव्य धारा जीवन के सभी पहलुओं पर सार्थक दृष्टि डालती है। इसमें व्यक्ति, समाज, जीवन मूल्य, रचना प्रक्रिया सभी को अपनी कविता का विषय बनाया और इन। अर्थों में नवीन युग बोध वाली नयी स्वस्थ जीवनानुभावों से युक्त एक सम्पूर्ण काव्यधारा बन बैठी/गयी। 

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