जबान (निबंध) : बालकृष्ण भट्ट

कहने को मनुष्य के शरीर में 5 इंद्रियाँ हैं और यह पुतला उन्हीं 5 कर्मेंद्रियों का बना है किंतु उन उन इंद्रियों का प्राबल्य केवल अपने विषय में है अपना विषय छोड़ दूसरे के विषय में वे कुछ अधिकार नहीं रखतीं जैसा कर्णेद्रिय का अधिकार शब्द पर है तो कान को रूप से, जो नेत्र का विषय है कुछ सरोकार नहीं है। ऐसा ही नेत्र को त्वगिंद्रिय से, जिसका अधिकार स्पर्श पर है, कुछ सरोकार नहीं है। कड़ी वस्तु देख नेत्र को न कुछ दुःख मिलता है न मुलायम को देख कर सुख। नासिका का विषय सुगंधि- दुर्गंधि है, शेष चार शब्द स्पर्श रूप रस से नासिका को कोई प्रयोजन नहीं है।
पर जबान सब इंद्रियों में इतनी प्रबल है कि यह जाइका लेने के सिवाय रस के जो इसका प्रधान विषय है, शब्द स्पर्श रूप गंध सबों को अपने साथ समेटती है। भोजन के समय जरा भी दुर्गंधि हो या खाना जिसे हम खा रहे हैं, गंधाता हो, कभी न खाया जायेगा। खाने की कौन कहे मिचलाई आने लगेगी, जो पेट में है वह भी बाहर निकल पड़ेगा। उनकी तो बात ही निराली है जिन्हें दुर्गन्धि ही सुगंधि है। हमारे साहबान अंग्रेजों के साफ और सुथरे दस्तरखान पर चमाचम रकाबियों में जब तक महीनों की सड़ी मांस या मछली और पनीर न रक्खी हो तब तक लज्जत और जाइका नहीं जिसकी झलक पाय दूर ही से नाक सड़ती है। जितनी ही जियादह झझका हो उतना ही जियादह जायका ! किंतु सफाई को इतना अधिक अधिकार दिया गया है कि होटलिये हिंदुस्तानी भाई भी उसी सफाई पर मोहित हो साहबों की झूठी रकाबियों पर मक्खी-सा जा टूटते हैं। इलायची केवड़ा केसर आदि सुगंधित द्रव्य इसी प्रयोजन से भोजन के पदार्थों में मिलाये जाते हैं, जिससे उसमें सुगंधि आ जाय और सुगंधित भोजन मामूली भोजन से सवाया अधिक खाया जाता है। अब दूसरी नेत्र को जिह्वा से क्या सरोकार है। साफ और स्वच्छ पदार्थ देखते ही जीभ से पानी टपकने लगता है स्वादिष्ट भोजन कसीफ और मैला हो तो भाव दुष्ट होने से चित्त उस पर इतना नहीं लहालोट होता जितना साफ और स्वच्छ पदार्थ पर जो नेत्र को भावता हो। इसी तरह स्पर्श-सुख का सूक्ष्म अनुभव जैसा जीभ कर सकती है वैसा शरीर के दूसरे हिस्से नहीं कर सकते। इसी से जीभ का रसना यह नाम सब भाँति सार्थक है। ईश्वर करें रसना किसी की रस के अनुभव में तेज और चोखी हो। चटोरी जीभ लाखों रुपया चाट बैठती है और हविस उसकी नहीं बुझती न जानिये कितने लोग केवल चटोरी जीभ के कारण लाख का घर खाक में मिलाय सब चाट बैठे। जुआ शराब ऐयाशी चटोरापन इन चारों ऐबों में किसी एक का हो जाना बरबादी के छोर तक पहुँचाने के लिए काफी है। दैव के कोप से जिनमें चारों हैं उनकी सपूती और लियाकत का भला क्या कहना।
तावज्जितेन्द्रियो न स्याद्विजितान्येन्द्रियकः पुमान्।
न जयेद्रसनं यावत् जितं सर्व जिते रसे॥
तब तक मनुष्य जितेंद्रिय नहीं हो सकता चाहे और सब इंद्रियों को वश में
कर भी लिया हो जब तक रसना को अपने वश में नहीं किया। एक जिह्वा को काबू में रखकर बाकी और सारी इंद्रियाँ काबू में आ सकती हैं। और भी-
जिह्वयातिप्रमाथिन्या जनो रसविमोहिनः।
मृत्युच्छत्यसद्बुद्धिर्मौनस्तु बडिशैर्यथा।।
चटोरी जीभ के कारण मनुष्य मूढ़ बन मछली के समान जिह्वा के वश में पड़ नष्ट हो जाता हैं।
जितने खाद्य पदार्थ हैं उनका स्वाद या जाइका जिह्वा के अग्रभाग से क्षण भर के संयोग का है, गले के नीचे उतरा कि स्वादिष्ट और बेलज्जत भोजन दोनों एक से हैं-
आस्वाद्यस्य हि सर्वस्य जिह्वाग्रे क्षणसंगमः।
कण्ठनाडीमीतं च सर्वं कदशनं समम्॥
केवल स्वाद चखना जीभ का फायदा हो सो नहीं वरन् शरीर के और अंग की अपेक्षा इसके गुण या दोष भी सबसे अधिक प्रबल हैं – बड़े से बड़ा फायदा और बड़े से बड़ा नुकसान दोनों इसके द्वारा हो सकते हैं – गाँठ का एक पैसा भी बिना गंवाये मीठी जबान लाखों का फायदा सहज में कर सकती है-
“कागा काको धन हरै कोयल काको देय।
मीठी वचन सुनाय के जब अपनो करि लेय।।”
(नुकसान भी आदमी कड़ई या बदजबानी से इतना उठाता है कि सब उमदा सिफतों के होते भी लोग कटुभाषी या बदजबान के पास जाते हिचकते हैं, कटहा कुत्ता-सा वह सबों से बरकाया जाता है। जबान को समस्त सभ्यता और शाहस्तगी का सारांश कहना अनुचित नहीं है। अब तक जो कुछ तरक्की संसार में हुई है उसका द्वार जबान ही है इंसान और हैवान में यही तो अंतर है कि जानवर हम लोगों की तरह अपने ख्याल जबान से कहकर नहीं अदा कर सकते. नहीं तो और सब इंद्रियों के लालन-पालन में आहार निद्रा भय मैथुन आदि के द्वारा पशु और मनुष्य की समता होने में कौन-सा अंतर बचा रहा।) लिखकर अक्षरबद्ध रख छोड़ने का क्रम तो बहुत दिनों के बाद निकला। प्रारंभ में जबान से कहना और कान से सुन उसे याद रखना ही बहुत दिनों तक जारी रहा। ज्यों-ज्यों लोग अधिक सभ्य होते गये, हिंदी की चिंदी निकालने लगे। तब वे ही सूत्र जो जबान से कहे गये उन पर भाष्य शरह और कमेंटरी होती गयी और उन्हें बृहत् होने के कारण स्मरण शक्ति के बाहर समझ लोगों ने संकेत के ढंग पर अक्षर निकाले और लिखकर रख छोड़ने लगे।
तात्पर्य यह है कि यावत् विद्या और ज्ञान पहले जिह्वा से कहकर प्रकट न किये गये होते तो केवल लेख-शक्ति से कुछ न होता, न हमारी सभ्यता इस छोर तक पहुँचती । जबान को दबाना क्रोध को दबा रखने का एक ही उपाय है। कई बार की आजमाई हुई बात है कि कैसा ही क्रोध आया हो चिल्लाने के एवज धीरे-धीरे बोलो, क्रोध क्रमक्रम आप ही शांत हो जाएगा। जीभ समाज को कहाँ तक लाभदायक हुई सो दिखला चुके।
अब धर्म संबंध में जिह्वा पर लगाम रखने की कितनी आवश्यकता है सो दिखलाते हैं। सच तो यों है कि जीभ पर बिना कोड़ा रखे धर्मनिष्ठों को धर्मधुरंधर बनने का दावा करना सर्वथा व्यर्थ है। वह अवश्य धोखे में पड़ा है जो अपने को धर्मनिष्ठ तो मानता है पर जीभ को अपने काबू में नहीं किया। झूठ बोलना, झूठी गवाही देना, चुगली बदगोई इत्यादि से बचना ही जीभ पर लगाम नहीं कहलावेगा क्योंकि झूठी गवाही चुगली, गाली इत्यादि बड़े-बड़े पापों का विषय निराला है कानून फौजदारी “क्रिमनिल ला ” के मद्द में उसकी गिनती है और सरकार की ओर से उसके लिए दंड नियत है। जिस पर जान-बूझकर शामत सवार होगी वही ऐसे-ऐसे अपराधों में अपने को फँसाय कैद और जुरमाने का सजावार बनावेगा।
बल्कि जबान में लगाम से प्रयोजन गप्पी और वाचाल का है, जिसे अपनी गम्माष्टक के समय आगे-पीछे का कुछ ख्याल नहीं रहता, न अपनी या पराये की हानि – लाभ का । जिनको गप्प हाँकने की आदत हो गई है वे इसे अपने लिए दिलबहलाव मानते हैं इसमें किसी तरह ऐब या पाप नहीं समझते और जब उनके गप्प का विषय चुक जाता है, कोई बात नहीं रहती जिस पर वे अपने गप्प को काम में लावें तब वे कुछ ऐसी कल्पना किया करते हैं जिससे दूसरों को बदनाम करैं, चीट उड़ावें, किसी का कुछ कलंक उद्घाटन करें इत्यादि । चुप उनसे नहीं रहा जाता, कुछ कहना अवश्य-
“मुखमस्ति च वक्तव्यं शतहस्ता हरीतकी।”
मुख में जीभ ईश्वर ने दी है तो कुछ कहना चाहिए। हाँ सुनिये सौ की हरै-ऐसे लोग जिन्हें बहुत बकने का अभ्यास हो गया है अपनी बकवास की जोश में वह बात कह डालते हैं, जो न कहना चाहिए या जिसे कहकर वे पीछे पछताते हैं। यहाँ तक बेफायदा बकवाद उन्हें पसंद आती है कि जब तक मन मानता बक न लें अचायेंगे नहीं, जैसा स्त्रियों में बहुधा ऐसी होती हैं कि 24 घंटे में कम से कम 6 घंटे लड़ न लेंगी उन्हें अन्न न पचेगा-नौवाबों में किस्सेगो इस किस्म के रहते थे कि दिन भर कहो बकते रहें, उनके किस्से की लय न टूटे। चंडुखाने में चंडूबाजों की गप्प मशहूर हुई है। इन बकवादियों की भी कई किस्में हैं। कितने तो ऐसे हैं कि उनकी कोई सुने या न सुने उनको बक जाने से काम। कितने ऐसे हैं कि उनकी बकबक का किसी ने निरादर किया कि उन्हें क्रोध आ जाता है, बिगड़ खड़े होते हैं। कितने ऐसे हैं कि अपनी बकवाद को रंगीन और दिलचस्प न समझ सुनने वालें को नापसंदीदा जान चट्ट उसमें कुछ ऐसा ईजाद कर देते हैं कि थोड़ी देर के लिए सबों का ध्यान उस ओर मुखातिब हो जाता है। इसे वे एक हुनर मानते हैं और इस ढंग से बात करते हैं कि उनकी सरासर झूठ बात सब लोग सच मान लेते हैं।
जीभ को न दबाना अनेक बुराई और क्लेश का कारण है। महाभारत ऐसा सर्वनाशी संग्राम इसी जीभ के न दबाने की बदौलत किया गया। द्रौपदी ने यदि दुर्योधन को ‘अंधे के अंधे होते हैं’ इस मर्मवेधी वाक्य को कह मर्म ताडन न किया होता और दुर्योधन को पांडवों से खार न पैदा हुई होती तो परिणाम में 18 अक्षौहिणी सेना काहे को कट मरती, जिसका धक्का जो हिंदुस्तान को लगा बल्कि जैसा कारी घाव इसके शरीर में हो गया, उसकी मरहमपट्टी आज तक न हो सकी। इन्हीं सब कारणों से सिद्ध हुआ, मनुष्य अपनी जीभ पर जहाँ तक चौकसी कर सके और उसको दबा सके, दबावै। इस पर चौकसी रखने से अनेक भलाइयाँ हैं और स्वच्छंद कर देने से सब तरह की बुराइयों की संभावना है।
जीभ को दबाना और चौकसी रखने से यह प्रयोजन नहीं है कि हम सर्वथा मूकभाव धारण कर लें, किंतु चुप रहने के भी मौके हैं। विद्यावृद्ध, वयोवृद्ध या संसार की अनेक ऊँची-नीची बातों के अनुभव में जो अपने से अधिक हैं उनके सामने शालीनता के ख्याल से चुप रहना होता है जिसमें वह कोई न समझे कि यह छोटे मुँह बड़ी बात कह रहा है। बहुत बकने वालों में कितने ऐसे हैं कि घंटों तक बक जाते हैं, पर उनके बात करने का खास मतलब क्या था, कुछ समझ में नहीं आता। इस तरह पर बात करने वालों की कई किस्में हम यहाँ पर गिना सकते हैं। एक वे हैं कि हँसते जाते हैं, बात करते जाते हैं- “हस्नूर्मुखः”, ” हसन्नजल्पे” इत्यादि वाक्य साक्षी हैं कि बात कहने का यह क्रम मूर्खता की पहचान है। एक सुखुन तकिया वाले होते हैं। दस लफ्ज का एक जुमला होगा तो पाँच लफ्ज उसमें उनके तकियाकलाम के होंगे। इनमें जिन्हें गाली की सखुन-तकिया पड़ जाती है उनकी घिनौनी बात कान को महा असह्य मालूम होती है। एक वज्रभाषी होते हैं। बात उनके मुख से क्या निकली मानो गाज गिरी। ऐसों की आदत होती है कि जहाँ कोई बात बनती हो तो ये वहाँ पहुँच उसे बिगाड़ देने में कसर न करेंगे।
अतीम रोषो कटुका च वाणी नरकस्य चिह्नं नरकागतस्य।
उनकी व्रज-भाषी कटु वाणी इस बात का चिह्न है कि वे नरक झेलकर आए हैं और मरकर फिर नरक में जायेंगे। इसी के विरुद्ध एक ऐसे भी सुकृती जन हैं जो अपनी मीठी बोली से मन खींच लेते हैं। धन्य हैं वे स्वर्गगामी जन, इत्यादि । जिह्वा के संबंध में जो कुछ वक्तव्य था हमने सब कह सुनाया।