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कविता: हमारे पूर्वज- मैथिलीशरण गुप्त

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लेखक: मैथिलीशरण गुप्त

उन पूर्वजों की कीर्ति का वर्णन अतीव अपार है।
गाते नहीं उनके हमीं गुण, गा रहा संसार है।
वे धर्म्म पर काले निछावर तृण-समान शरीर थे,
उनसे वही गम्भीर थे, वर वीर थे, ध्रुव धीर थे।

उनके अलौकिक दर्शनों से दूर होता पाप था,
अति पुण्य मिलता था तथा मिटता हृदय का ताप था।
उपदेश उनके शान्तिकारक थे निवारक शोक के
सब लोक उनका भक्त था, वे थे हितैषी लोक के।

लखते न अघ की ओर थे वे, अघ न लखता था उन्हें
वे धर्म्म को रखते सदा थे, धर्म्म रखता था उन्हें।
वे कर्म से ही कर्म्म का थे नाश करना जानते,
करते वही थे वे जिसे कर्त्तव्य थे वे मानते॥

वे सजग रहते थे सदा दुख-पूर्ण तृष्णा-भ्रान्ति से
जीवन बिताते थे सदा सन्तोष पूर्वक शान्ति से।
इस लोक में उस लोक से वे अल्प सुख पाते न थे,
हँसते हुए आते न थे, रोते हुए जाते न थे।

जिनकी अपूर्व सुगन्धि से इन्द्रिय-मधुप हिले थे मिले,
सद्भाव सरजित वर जहाँ पर नित्य रहते थे खिले।
लहरें उठाने में जहाँ व्यवहार-मारूत नग्न था,
उन्मत्त आत्मा हंस उनके मानसों में मग्न था।

वे ईश-नियमों की कभी अवहेलना करते न थे,
सन्मार्ग में चलते हुए वे विघ्न से डरते न थे।
अपने लिए वे दूसरों का हित कभी हरते न थे,
चिन्ता-प्रपूर्ण, अशान्ति-पूर्वक वे कभी मरते न थे।

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