बादल को घिरते देखा है : नागार्जुन (व्याख्या) badal ko ghirte dekha hai

कविता “बादल को घिरते देखा है” (badal ko ghirte dekha hai) नागार्जुन के कविता संग्रह “युगधारा” से ली गई है। इस कविता में नागार्जुन ने प्रकृति का अति मनमोहक वर्णन किया है जिसमें उन्होंने बादलों को केंद्र में रखा है। इसमें उन्होंने बादल के कोमल और कठोर रूपों का वर्णन किया है जिसमें हिमालय की झीलों, देवदार के वनों, मानसरोवर, के साथ साथ किन्नर-किन्नरीयों का भी यथार्थ चित्रण किया है।
नागार्जुन का जन्म बिहार के, दरभंगा ज़िला के, सतलखा गाँव में हुआ, परंतु वह मधुबनी ज़िला के तैरानी गाँव के निवासी थे। उनका मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय संस्कृत पाठशाला में हुई। बाद में वह वाराणसी और कोलकाता भी गए। सन् 1936 में वह श्रीलंका गए और बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। 1938 में वह स्वदेश वापस आए। फक्कड़पन और घुमक्कड़ी उनके जीवन की प्रमुख विशेषता रही।
कविता:
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
प्रसंग: प्रस्तुत काव्यांश महान जनकवि नागार्जुन की बेहद सुंदर कविता बादल को घिरते देखा है से लिया गया है। यह कविता नागार्जुन के कविता संग्रह “युगधारा” से संकलित है। इसमें उन्होंने बादलों के विभिन्न रूपों का सुंदर चित्रण किया है।
संदर्भ : प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने बरसात के शुरुआती चरण का वर्णन किया है। मानसरोवर में खिले कमलों पर गिरती बूँदों को देख कर कवि मुग्ध हो रहा है और इसी परिवेश का वर्णन उन्होने इन पंक्तियों में किया है।
व्याख्या : प्रस्तुत काव्यांश में पर्वतों पर बरसात के वातावरण का चित्रण करते हुए कवि कहते हैं कि अमल धवल गिरि के शिखरों पर अर्थात पर्वत (हिमालय) के निर्मल, शुद्ध और श्वेत शिखरों पर उन्होंने बादल को घिरते देखा है। प्रकृति का यह अद्भुत करिश्मा देख कर कवि मुग्ध हो रहे हैं कि श्वेत और निर्मल पर्वत शिखरों के ऊपर बरसात के काले घने बादल बेहद ही मनमोहक चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं। आगे वह बरसात की बूँदों का मनोरम वर्णन करते हुए कहते हैं कि बरसात की जो बूँदें हैं वह छोटे छोटे मोतियों जैसी प्रतीत हो रही हैं। उनके आंतरिक गुणों का वर्णन करते हुए वह कहते हैं कि बरसात की जो बूँदें हैं वह शीतल और तुहिन अर्थात् बर्फ के समान ठंडी हैं जिन्हें उन्होंने मानसरोवर में खिले हुए कमलों पर जो कि स्वर्णिम अर्थात् सोने के समान लग रहे हैं उन पर गिरते हुए देखा है। यह दृश्य ऐसा लगता है जैसे किसी ने स्वर्ण माला में मोती पिरो कर उसकी सुंदरता में वृद्धि कर दी हो। प्रकृति में उपस्थित अलग अलग संपदाओं के बीच हो रही क्रियाओं से उत्पन्न हो रहे मनमोहक और मनोरम दृश्यों को देखना जितना आह्लादक है उसका वर्णन उतना ही कठिन जिसे कवि ने एक सुन्दर शब्दमाला में पिरो कर हम सभी के समक्ष प्रस्तुत किया है। बादल को घिरते देखा है। (badal ko ghirte dekha hai)
विशेष:
- ‘छोटे-छोटे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग है।
- ‘मोती जैसे’ में उपमा अलंकार का प्रयोग है।
- बिंबात्मक भाषा का प्रयोग
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर बिषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
प्रसंग: प्रस्तुत काव्यांश महान जनकवि नागार्जुन की बेहद सुंदर कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ से लिया गया है। यह कविता नागार्जुन के कविता संग्रह “युगधारा” से संकलित है। इसमें उन्होंने बादलों के विभिन्न रूपों का सुंदर चित्रण किया है।
संदर्भ : प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने हिमालय पर्वत पर स्थित तालाबों में पानी पी रहे हंसों का बेहद ही खूबसूरत चित्रण किया है।
व्याख्या : प्रस्तुत काव्यांश में कवि कहते हैं कि तुंग हिमालय के कंधों पर अर्थात् ऊँचे हिमालय के कंधों पर कई छोटी बड़ी झीलें स्थित हैं। इन झीलों के श्यामल नील सलिल में अर्थात् इन झीलों के गहरे नील जल में समतल देशों अर्थात् मैदानी इलाक़ों से आ आ कर पावस की उमस से आकुल यानी बरसात से उपजी उमस से व्याकुल और तिक्त मधुर विषतंतु खोजते अर्थात् तीखे और मीठे कमल के रेशों (जो कि हंसों का भोजन होता है) को खोजते हंसों को तिरते अर्थात् तैरते हुए देखा है। बादल को घिरते देखा है। यहाँ कवि दृश्य रचते हैं कि जहाँ एक ओर पर्वतों पर बरसात हो रही है वहीं दूसरी ओर मैदानी इलाक़े उमस की मार से परेशान हैं। केवल मनुष्य ही नहीं मैदानी इलाकों के जीव जंतु भी इस उमस भरे वातावरण से बेहाल हैं और अपनी प्यास बुझाने के लिए हिमालय की ओर गमन कर रहे हैं। वहाँ हिमालय के शिखर पर स्थित झीलों में कमल के रेशे खोजते हुए हंस तैर रहे हैं तथा अपनी भूख-प्यास को तृप्त कर रहे हैं। हिमालय के शिखरों पर स्थित झीलों में तैरते श्वेत हंस, पर्वत के निर्मल और श्वेत शिखरों की सुंदरता बढ़ा रहे हैं और इस का मनमोहक चित्रण कवि ने इस काव्यांश में किया है। (badal ko ghirte dekha hai)
विशेष:
- पावस और उमस जैसे देशज शब्दों का प्रयोग।
- श्यामल नील सलिल में अंत्यानुप्रास अलंकार का प्रयोग।
- बिंबात्मक भाषा का प्रयोग
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बग़ल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
प्रसंग: प्रस्तुत काव्यांश महान जनकवि नागार्जुन की बेहद सुंदर कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ से लिया गया है। यह कविता नागार्जुन के कविता संग्रह “युगधारा” से संकलित है। इसमें उन्होंने बादलों के विभिन्न रूपों का सुंदर चित्रण किया है।
संदर्भ : प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने वसंत ऋतु की एक मादक सुबह का वर्णन किया है जहाँ सरोवर के किनारे चकवा-चकई का जोड़ा कलह करता हुआ खेलता हुआ नज़र आता है।
व्याख्या : प्रस्तुत काव्यांश में कवि वसंत ऋतु की एक मादक सुबह का वर्णन करते हुए प्रकृति में हो रही विभिन्न क्रियाओं का सुन्दर चित्रण करते हुए बताते हैं कि ऋतु वसंत का सुप्रभात था यानी वसंत ऋतु की एक शुभ सुबह थी। मंद-मंद था अनिल बह रहा अर्थात् धीरे धीरे हवा चल रही है, बालारुण की मृदु किरणें थीं अर्थात् उगते हुए सूरज की, भोर की कोमल किरणें फैली हुई थीं जो कि पर्वतों पर पड़ती थीं तो अगल-बगल खड़े पर्वत मानो सोने के प्रतीत होते थे। पर्वत अगल-बगल खड़े होकर भी एक दूसरे से विरहित अर्थात् अलग, दूर प्रतीत होते हैं, जिन्हें इतने क़रीब होते हुए भी अलग-अलग रहकर सारी रात बितानी पड़ी है। परंतु अब सुबह हो चुकी है और निशा काल अर्थात रात्रि से अभिशापित उस चकवा-चकई के जोड़े का क्रंदन अर्थात् विलाप बंद हो गया है, अब वे दोनों साथ साथ हैं और मिलकर सरोवर अर्थात् तालाब के किनारे फैली शैवालों (विभिन्न फोटोसिंथेटिक जीवों का अनौपचारिक समूह जो मुख्य रूप से जलीय वातावरण में पाये जाते हैं) की हरी हरी दरी पर प्रणय-कलह कर रहे हैं अर्थात् प्यार से लड़ झगड़ रहे हैं, भिन्न भिन्न क्रियाएं कर रहे हैं और कवि मुग्ध हो कर यह दृश्य देख रहा है। बादल को घिरते देखा है। (badal ko ghirte dekha hai)
विशेष:
- मंद-मंद में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग
- शिखरों की विरक्ति में मानवीकरण अलंकार
- बिम्बात्मक भाषा का प्रयोग
दुर्गम बर्फ़ानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल—
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
प्रसंग: प्रस्तुत काव्यांश महान जनकवि नागार्जुन की बेहद सुंदर कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ से लिया गया है। यह कविता नागार्जुन के कविता संग्रह “युगधारा” से संकलित है। इसमें उन्होंने बादलों के विभिन्न रूपों का सुंदर चित्रण किया है।
संदर्भ : प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने एक कस्तूरी मृग का चित्रण किया जो अपने ही नाभि में छिपे परिमल की खोज में व्याकुल हो कर यहाँ वहाँ घूम रहा है।
व्याख्या :प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने एक मृग का चित्रण किया है जिसका उल्लेख पहले भी हमें कबीर दस आदि जैसे संत कवियों के दोहों में मिल जाता है। कहा जाता है कि कस्तूरी मृग की नाभि में एक बेहद ही सुगंधित परिमल पाया जाता है, कस्तूरी मृग इसी सुगंध से भ्रमित होकर उस सुगंध की खोज में दर-ब-दर भटकता रहता है परंतु उस सुगंध को प्राप्त नहीं कर पाता है। इसी का बेहद सुंदर चित्रण बाबा नागार्जुन ने इस काव्यांश में किया है। वह लिखते हैं कि हिमालय की दुर्गम बर्फ़ानी घाटी शत-सहस्त्र फर ऊँचाई पर यानी जहाँ पहुंचना भी सहज नहीं है, जहाँ के वातावरण में बर्फ़ानी ठंड सी शीतलता है, जो सैकड़ों-हज़ारों फीट की ऊँचाई पर स्थित है, ऐसी घाटी पर वह एक कस्तूरी मृग को देखते हैं। वह मृग अलख नाभि में उठने वाले निज उन्मादक परिमल अर्थात् अलक्षित या न दिखायी देने वाली अपनी ही नाभि से उठने वाली, उन्मादित कर देने वाली परिमल अर्थात् सुगन्ध के पीछे धावित हो हो कर, दौड़ दौड़ कर तरल-तरुण अर्थात् चंचल और युवा कस्तूरी मृग को स्वयं पर ही चिढ़ते देख रहे हैं। यह दृश्य इतना मंत्र मुग्ध कर देने वाला है कि कवि इसे देख कर आह्लादित हो रहे हैं और इसका वर्णन करने से ख़ुद को रोक नहीं पा रहे।
इस काव्यांश के माध्यम से कवि एक दार्शनिक संदेह भी देते हैं कि हमारे अधिकतर प्रश्नों के उत्तर हमारे भीतर ही छिपे होते हैं, लेकिन हम उन जवाबों को अपने से बाहर ढूँढने में पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं और जवाब से अनजान ही रह जाते हैं। (badal ko ghirte dekha hai)
विशेष:
- बिंबात्मक भाषा का प्रयोग
- हो-हो में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग
- तरल-तरुण में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग
कहाँ गए धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किंतु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
प्रसंग: प्रस्तुत काव्यांश महान जनकवि नागार्जुन की बेहद सुंदर कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ से लिया गया है। यह कविता नागार्जुन के कविता संग्रह “युगधारा” से संकलित है। इसमें उन्होंने बादलों के विभिन्न रूपों का सुंदर चित्रण किया है।
संदर्भ : प्रस्तुत काव्यांश में कवि कुबेर के नगर अलका और महाकवि कालिदास द्वारा रचित मेघदूत नाटक में चित्रित मेघों को खोजते हुए कैलाश पर्वत के वर्तमान दुर्गम वातावरण का वर्णन करते हैं।
व्याख्या : प्रस्तुत काव्यांश में कवि हिमालय की चोटी पर फैली प्राकृतिक सुंदरता का बखान करते हुए उनकी तुलना कुबेर के नगर के साथ करते हुए प्रश्न करते हैं कि कुबेर द्वारा रचित वे बेहद सुंदर नगर जो अलका नाम से विख्यात था, जिसकी अलौकिक और अद्वितीय सुंदरता संसार की किसी भी सुंदर वस्तु को आईना दिखा सकती है, वे सब कहाँ गए? इस के ज़रिये वह प्रकृति की लाश पर फलती और फूलती आधुनिकता पर भी प्रश्न चिह्न खड़ा करते हैं कि किस प्रकार हम प्रकृति को निरन्तर नष्ट करते हुए आधुनिकता की दौड़ में अंधे हो गए हैं। आगे वह कालिदास के नाटक मेघदूतम में चित्रित व्योम प्रवाही गंगाजल को भी खोजते नज़र आते हैं और न मिलने पर हताश हो कर कहते हैं कि आकाश से बहते जिस गंगाजल का वर्णन कालिदास ने अपने नाटक में किया था वह कहाँ लुप्त हो गया है? आगे वह कहते हैं कि उन्होंने महदूत को ढूँढने की भी पुरज़ोर कोशिश की लेकिन वह भी उनके हाथ न लगा और पुनः हताश होकर कहते हैं कि हो सकता है वह छायामय मेघदूत कहीं किसी शिखर पर बरस पड़ा होगा और इन सबको कालिदास की कल्पना घोषित करते हुए उन्हें कल्पित कवि घोषित कर देते हैं कि जब यह चीजों का पता लगाना दुर्गम या असंभव है तो यह कोरी कल्पना के अतिरिक्त और कुछ नहीं। वह कहते हैं कि मेघों की वह छवि केवल कोरी कल्पना है क्योंकि मैंने तो भीषण जाड़ों में आकाश को चूमते कैलाश पर्वत के शिखरों पर महामेघ (घने काले बादलों) को झंझानिल अर्थात् आँधी तूफ़ान के कारण एक दूसरे से गरज गरज कर भिड़ते हुए ही देखा है। (badal ko ghirte dekha hai)
विशेष:
- बिंबात्मक भाषा का प्रयोग
- अलका और मेघदूत जैसी पौराणिक और प्राचीन नगरों और रचनाओं का वर्णन/संदर्भ।
- गरज-गरज में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु-कानन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि-खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आँखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
प्रसंग: प्रस्तुत काव्यांश महान जनकवि नागार्जुन की बेहद सुंदर कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ से लिया गया है। यह कविता नागार्जुन के कविता संग्रह “युगधारा” से संकलित है। इसमें उन्होंने बादलों के विभिन्न रूपों का सुंदर चित्रण किया है।
संदर्भ : प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने कैलाश पर्वत पर स्थित अपनी कुटिया में विभिन्न प्राकृतिक आभूषणों से सुसज्जित कलरव करते किन्नर-किन्नरियों का बेहद खूबसूरत वर्णन करते हैं।
व्याख्या : प्रस्तुत काव्यांश में कवि प्रकृति और उसके बने आभूषणों से सज्जित किन्नर-किन्नरियों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल अर्थात् सैकड़ों झरनों और नदियों की कलकल देवदारु के कानन अर्थात जंगलों में मुखरित हो रही है। शोणित-धवल अर्थात् लाल और सफेद भोज पत्तों से निर्मित कुटिया के भीतर किन्नर-किन्नरियाँ रंग-बिरंगे और सुगंधित फूल कुंतल यानी केशों या बालों में सजाए हुए, अपने शंख जैसे सुघड़, सुंदर गले में इंद्रनील अर्थात नीलम रत्न की माला धारण किए हुए, कानों में कुवलय अर्थात नील कमल लटकाए, वेणी अर्थात् चोटी में शतदल लाल कमल लपेटे हैं। रजत अर्थात् चाँदी से निर्मित और मणियों से जड़ित पान पात्र या सुराही द्राक्षासव अर्थात मदिरा से भरी हुई है उनके सामने रखी लाल चंदन से निर्मित मेज़ पर रखी हुई है। वे बाल कस्तूरी मृग की खाल से बनी बेदाग और नरम दरी पर पालथी मारे बैठे हुए, मदिरारुण आँखों वाले अर्थात् नशीली आँखों वाले उन नशे में धुत्त किन्नर-किन्नरियों की मृदुल मनोरम उँगलियों को वंशी बजाते हुए देखते हैं और मंत्र मुग्ध हो रहे हैं। इस काव्यांश में कवि ने हिमालय के कैलाश पर्वत पर बसने वाली जातियों एवं वनस्पतियों का बेहद मार्मिक तथा खूबसूरत चित्रण किया है। प्रकृति चित्रण का अनूठा और कलात्मक रूप कवि ने इस कविता के ज़रिये हम सभी के सामने प्रस्तुत किया है। (badal ko ghirte dekha hai)
विशेष:
- बिंबात्मक भाषा का प्रयोग
- नरम निदाग, मृदुल मनोरम, रजत-रचित, शतदल लाल कमल में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग
- शत-शत में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग
- शंख सरीखे में उपमा अलंकार का प्रयोग