कबीर की भाषा (kabir ki bhasha)

प्रश्न : कबीर की भाषा के औचित्य पर सोदाहरण विचार कीजिए। (kabir ki bhasha)
उत्तर : आ. रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार कबीर की भाषा सधुक्कड़ी थी। रमैनी और सबद गाने के पद हैं, जिसमें काव्य भाषा ब्रज और कहीं कहीं पूरबी बोली का प्रभाव लक्षित होता है। (kabir ki bhasha)
चूंकि कबीर निरक्षर थे, इसलिए उनका भाषा ज्ञान शून्य था, लेकिन उन्होंने अपना ज्ञान बहुविध सत्संगों को सुन कर उसे अपने अनुभव पर ठोक-पीट कर अर्जित किया था। अपनी इसी बाह्योन्मुखी जिज्ञासा और अर्जन शक्ति से भाषा के अलग-अलग रूपों का प्रयोग अपनी वाणी में किया।
आखडिया झाई पड्या पंथ निहारि निहारि ।
जोश्रड़िया छालया पड्या नाम पुकारि पुकारि ।।
कबीर कुत्ता राम का मुतियां मेरा नाऊ ।
गले राम की जेवडी जिन्न खींचें तित जाऊँ ।।
कबीर की भाषा में ब्रज, पूर्वी बोली, हरियाणवी, राजस्थानी बोलियों का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई पड़ता है। चूंकि कबीर की भाषा पर सिद्धों की संधा भाषा का प्रभाव है इसलिए इड़ा, पिंगला जैसे शब्दों की भरमार इनके साहित्य में विद्यमान है।
बाबूराम सक्सेना इन्हें अवधी का संत कवि मानते हैं, तो श्यामसुंदर दास ने इनकी भाषा को पन्चमेल खिचड़ी स्वीकार किया है। कबीर का ज्ञान बहुश्रुत दर्शन था ही और कविता करना उनका उद्देश्य भी नहीं था। अनायास ही उनके काव्य में पंजाबीपन झलकता है जिसकी पुष्टि रामकुमार वर्मा भी करते हैं।
द्विवेदी जी तो लिखते हैं कि कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। उन्होंने अपनी बात को जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया, बन पड़ा तो सीधे सीधे नहीं तो दरेरा देकर।
(kabir ki bhasha)