हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा

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हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की परंपरा का आरंभ 19वीं सदी से माना जाता है। यद्यपि 19वीं सदी से पूर्व विभिन्न कवियों और लेखकों द्वारा अनेक ऐसे ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी जिनमें हिन्दी के विभिन्न कवियों के जीवन वृत्त एवं कृतियों का परिचय दिया गया है, जैसे- चौरासी वैष्णव की वार्ता, दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता, भक्तमाल, कवि माला आदि-आदि किन्तु इनमें काल-क्रम, सन-संवत आदि का अभाव होने के कारण इन्हें इतिहास की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

वस्तुतः अब तक की जानकारी के अनुसार हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का सबसे पहला प्रयास एक फ्रेंच विद्वान गार्सा द तासी को ही समझा जाता है जिन्होंने ‘इस्तवार द लॉ लितरेत्यूर ऐंदुई ऐंदुस्तानी’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इसका प्रथम भाग 1839 ई. तथा द्वितीय 1847 ई. में प्रकाशित हुआ था। 1871 ई. में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ, जिसमें इस ग्रन्थ को तीन खण्डों में विभक्त करते हुए पर्याप्त संशोधन-परिवर्तन किया गया है। इस ग्रन्थ का महत्त्व केवल इसी दृष्टि से है कि इसमें सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। तासी के इतिहास में कालक्रम के स्थान पर अंग्रेजी वर्णक्रम में रचनाकारों को व्यवस्थित किया गया है, इसमें काल विभाजन एवं युगीन प्रवृत्तियों के विवेचन का कोई प्रयास नहीं किया गया है, हिन्दी के कवियों की अपेक्षा उर्दू के कवियों की संख्या अधिक है जिनके कारण इसे “इतिहास” मानने में संकोच होता है।

तासी के बाद इतिहास लेखन का दूसरा प्रयास शिवसिंह सेंगर ने किया। शिवसिंह सेंगर ने “शिव सिंह सरोज” (1883) नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें उन्होंने लगभग एक सहस्र (1000) कवियों का जीवन-चरित्र उनकी कविताओं के उदाहरण सहित प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इतिहास के रूप में इस ग्रन्थ का भी महत्त्व अधिक नहीं है, किन्तु फिर भी इसमें उस समय तक उपलब्ध हिन्दी कविता सम्बन्धी ज्ञान को संकलित कर दिया गया है, जिससे परवर्ती इतिहासकार लाभ उठा सकें इसी दृष्टि से इसका महत्त्व है।

सन् 1888 में ऐशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की पत्रिका के विशेषांक के रूप में जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा रचित “The Modern vernacular of Hindustan” का प्रकाशन हुआ, जो नाम से इतिहास न होते हुए भी सच्चे अर्थों में हिन्दी साहित्य का पहला इतिहास कहा जा सकता है। ग्रियर्सन ने अपने ग्रन्थ में सर्वप्रथम काल विभाजन व प्रवृत्तियों के आधार पर रचनाकारों को व्यवस्थित करने का प्रयास किया। विभिन्न युगों की काव्य प्रवृत्तियों की व्याख्या करते हुए उनसे सम्बन्धित सांस्कृतिक परिस्थितियों और प्रेरणा स्रोतों के भी उद्घाटन का प्रयास उनके द्वारा हुआ है।

मिश्र बन्धुओं द्वारा रचित “मिश्र बन्धु विनोद” चार भागों में विभक्त है, जिसके प्रथम तीन भाग 1913 ई. में तथा चतुर्थ भाग 1934 ई. में प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ में लगभग 5000 कवियों को स्थान दिया गया है तथा ग्रन्थ को 8 से भी अधिक काल खण्डों में विभक्त किया गया है। इतिहास के रूप में इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें कवियों के विकरणों के साथ-साथ साहित्य के विविध अंगों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है तथा अनेक अज्ञात कवियों को प्रकाश में लाते हुए उनके साहित्यिक महत्त्व को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

आधुनिक समीक्षा-दृष्टि से यह ग्रन्थ भले ही बहुत सन्तोष जनक न हो, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इतिहास लेखन की परम्परा को आगे बढ़ाने में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है। हिन्दी साहित्येतिहास की परंपरा में सर्वोच्च स्थान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित “हिन्दी साहित्य का इतिहास” (1929) को प्राप्त है, जो मूलतः नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हिन्दी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा गया था तथा जिसे आगे परिवर्धित एवं विस्तृत करके स्वतन्त्र पुस्तक का रूप दिया गया। शुक्ल ने अपने साहित्येतिहास रचना हेतु विकासवादी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाते हुए सुव्यवस्थित काल खण्ड व प्रवृत्तियों के आधार पर काल विभाजन किया। उन्होंने अपने इतिहास में 900 वर्षों के इतिहास को चार सुस्पष्ट काल-खण्डों में विभक्त करके अपनी योजना को एक ऐसे निश्चित रूप में प्रस्तुत कर दिया कि जिसमें पाठक के मन में शंका और संदेह के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता।

यह दूसरी बात है कि नवोपलब्ध तथ्यों और निष्कर्षों के अनुसार अब यह काल विभाजन त्रुटि पूर्ण सिद्ध हो गया है किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अपनी अति सरलता व स्पष्टता के कारण यह आज भी बहुप्रचलित और बहुमान्य है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी-साहित्य-लेखन की परम्परा में आचार्य शुक्ल का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उनका इतिहास ही अपने विषय का पहला ग्रन्थ है जिसमें अत्यन्त सूक्ष्म एवं व्यापक दृष्टि, विकसित दृष्टिकोण, स्पष्ट विवेचन-विश्लेषण व प्रमाणिक निष्कर्षों का सन्निवेश मिलता है ।

आचार्य शुक्ल के इतिहास लेखन के लगभग एक दशक के बाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस क्षेत्र में अवतरित हुए। उनकी ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ (1940 ई.) क्रम और पद्धति की दृष्टि से इतिहास के रूप में प्रस्तुत नहीं है, किन्तु उसमें प्रस्तुत विभिन्न स्वतन्त्र लेखों में कुछ ऐसे तथ्यों और निष्कर्षों का प्रतिपादन किया गया है जो हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन के लिए नयी दृष्टि, नयी सामग्री और नयी व्याख्या प्रदान करते हैं। जहाँ शुक्ल की ऐतिहासिक दृष्टि युग की परिस्थितियों को प्रमुखता प्रदान करती है, वहाँ आचार्य द्विवेदी ने परंपरा का महत्त्व प्रतिष्ठित करते हुए उन धारणाओं को खण्डित किया जो युगीन प्रभाव के एकांगी दृष्टिकोण पर आधारित थीं। हिन्दी साहित्य की भूमिका’ के अनन्तर आचार्य द्विवेदी की इतिहास-सम्बन्धि कुछ और रचनाएँ भी प्रकाशित हुई- हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास’ (1952), ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’ (1952) आदि।

हिन्दी साहित्य के इतिहास की विशेषतः मध्यकालीन काव्य के स्रोतों व पूर्व-परम्पराओं के अनुसंधान तथा उनकी अधिक सहानुभूतिपूर्ण व्याख्या करने की दृष्टि से आचार्य द्विवेदी का योगदान अप्रतिम है।

आचार्य द्विवेदी के ही साथ-साथ इस क्षेत्र में अवतरित होने वाले एक अन्य विद्वान डॉ रामकुमार वर्मा हैं, जिनका हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ सन् 1938 में प्रकाशित हुआ था। इसमें 693 ई. में 1693 ई. तक की कालाविधि को ही लिया गया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ को 7 प्रकरणों में विभक्त करते हुए सामान्यतः आचार्य शुक्ल के ही वर्गीकरण काअनुसरण किया गया है डॉ. वर्मा ने स्वयम्भू को, जो कि अपभ्रंश के सबसे पहले कवि हैं, हिन्दी का प्रथम कवि माना है। ऐतिहासिक व्याख्या की दृष्टि से यह इतिहास शुक्ल के गुण-दोषों का ही विस्तार है, कवियों के मूल्यांकन में अवश्य लेखक ने अधिक सहृदयता और कलात्मकता का परिचय दिया है।

विभिन्न विद्वानों ने सामूहिक सहयोग के आधार पर लिखित इतिहास-ग्रन्थों में हिन्दी साहित्य’ भी उल्लेखनीय है, जिसका सम्पादन डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने किया है। इसमें सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य को तीन कालों आदिकाल, मध्यकाल एवं आधुनिक काल में विभक्त करते हुए प्रत्येक काल की काव्य परम्पराओं का विवरण अविच्छिन्न रूप से प्रस्तुत किया गया है।

इस प्रकार गार्सा द तासी से लेकर अब तक की परम्परा के संक्षिप्त सर्वक्षण से यह भली भाँति स्पष्ट हो जाता है कि लगभग एक शताब्दी तक की ही अवधि में हिन्दी साहित्य का इतिहास लेखन अनेक दृष्टियों, रूपों और पद्धतियों का आकलन और समन्वय करता हुआ संतोषजनक प्रगति कर पाया है।

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