हिन्दी साहित्य: काल विभाजन और नामकरण

हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन और नामकरण सामान्यतः आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास से ही ग्रहण किया जाता है। आचार्य शुक्ल के नामांकन और सीमांकन की कुछ सीमाएँ भी है।
(i) आदिकाल (वीरगाथा काल) : संवत 1050 से 1375
(ii) पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल) : संवत 1375 से 1700
(iii) उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) : संवत 1700 से 1900
(iv) आधुनिक काल (गद्यकाल) : संवत 1900 से अब तक
अनेक विद्वानों द्वारा आदिकालीन साहित्य के संबंध में आचार्य शुक्ल की मान्यताओं का खंडन भी किया गया है।
(i) आदिकाल
- हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम चरण को जॉर्ज ग्रियर्सन अपनी पुस्तक “The Modern Vernacular Literature of Hindustan” में चारण काल कहकर संबोधित करते हैं, वे इस काल की आरंभिक सीमा को 643 ई. मानते हैं। लेकिन वे विभाजन और नामकरण के बीच तालमेल नहीं बिठा पाते। वे जिन समय से साहित्य का आरंभ मानते हैं, उस समय में चारणों की प्रवृत्ति उस प्रकार से उभरकर सामने नहीं आती। अतः यह नाम अनुपयुक्त है। दूसरे इस नाम से जैन साहित्य, सिद्ध साहित्य और नाथ साहित्य तथा लौकिक साहित्य का ध्वनन नहीं हो पाता है।
- दूसरे महत्त्वपूर्ण इतिहासकार मिश्रबंधु हैं, जिन्होंने अपनी पुस्तक “मिश्र बन्धु विनोद” में आदिकाल का नाम “प्रारंभिक काल” रखा था। यह एक सामान्य सा नाम है। उन्होंने नाम की प्रस्तावना के पीछे कोई तर्क नहीं रखा। दूसरे इस नाम से यह ध्वनित है कि जैसे हिन्दी साहित्य का लेखन एकाएक प्रारंभ हो गया जो असंगत है। अतः इस नाम को एक सामान्य नाम ही मानना चाहिए।
- मिश्रबंधुओं के पश्चात आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य के इतिहास क्षितिज पर आते हैं। इनके साथ ही हिन्दी साहित्य के इतिहासलेखन का वास्तविक युग प्रारंभ होता है। आचार्य शुक्ल ने अपने ग्रंथ ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में आदिकाल को वीरगाथा काल कहा है। उनका कहना है कि संवत 1050 से संवत 1375 तक के साहित्य को प्रवृत्ति की दृष्टि से ‘वीरगाथा काल’ के नाम से ही जानना चाहिए क्योंकि इस कालावधि में वीरगाथात्मक रचनाओं की प्रधानता रही। आचार्य शुक्ल ने जिन 12 ग्रंथों के आधार पर यह नाम प्रस्तावित किया है, वे निम्नलिखित है:
1. खुमाण रासो 2. बीसलदेव रासो 3. हम्मीर रासो
4. परमाल रासो 5. पृथ्वीराज रासो 6. विजयपाल रासो
7. जयचंद्र प्रकाश 8. जयमयंक जस चन्द्रिका 9. कीर्तिलता
10. कीर्ति पताका 11. विद्यापति पदावली
12. खुसरों की पहेलियाँ
इन्हीं 12 पुस्तकों को आधार बनाकर शुक्ल ने इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा है। इन पुस्तकों को इतिहास की सामग्री बनाते हुए इतिहासकारों में संकोच और झिझक है क्योंकि इन ग्रन्थों की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगा हुआ था। वीरगाथात्मक रचनाओं के नाम पर उपरोक्त कृतियों में से कुछेक रचनायें हैं ही नहीं उदाहरण के लिए हम्मीर रासो की कोई स्वतंत्र प्रति उपलब्ध नहीं है। प्राकृत पैंगलम में 8 छन्दों के आधार पर शुक्ल जी ने यह नाम पटिकल्पित किया। जयचंद्र प्रकाश और जयमयंक जस चन्द्रिका का उल्लेख भी वह महज सूचना के आधार पर करते हैं। विद्यापति पदावली एक शृंगारिक रचना है। अमीर खुसरो की पहेलियों का वीरगाथाकाल से कोई संबंध नहीं है।
‘बीसलदेव रासो’ भी वीरगाथात्मक रचना नहीं है, शृंगारिक रचना है। परमाल रासो की भी प्रमाणिकता संदेहास्पद है। रासो ग्रंथों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रासो ग्रंथ ‘पृथ्वीराज रासो’ अधिक विवादास्पद कृति है कुल मिलाकर निष्कर्ष है कि आचार्य शुक्ल जिस आधार पर वीरगाथा नाम रखते हैं वह आधार ढह जाता है।
दूसरी असंगति यह है कि शुक्ल जी संवत 1050 के पीछे 7वीं सदी के मध्य जैन, सिद्ध और नाथ के साहित्य को हिन्दी साहित्य में स्थान नहीं देते वे इन्हें अपभ्रंश काल के अंतर्गत विवेचित करते हैं। शुक्ल जी इन्हें साम्प्रदायिक कहकर साहित्य से अलग-थलग करते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि इन काव्यधाराओं में प्रवृत्ति भाषा और काव्य रूप तीनों दृष्टियों से भक्तिकालीन साहित्य का आधार विद्यमान हैं। इन काव्यधाराओं में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि उस समय का मानस किस तरफ गतिशील था, लोक जीवन के जिस वैविध्य को साहित्य की मुख्य पुंजी माना जाता है उसका यहाँ नितान्त अभाव है।
- आचार्य शुक्ल के बाद इतिहासकारों में डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपनी पुस्तक “हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास” में एक नाम सुझाया है। उन्होंने प्रथम काल का नाम “संधिकाल और चारण काल” रखा है। उनका नाम दो भागों में विभाजित है, उन्होंने 7वीं सदी के मध्य से संवत 1050 तक के काल को संधिकाल कहा है तथा संवत 1050 से संवत 1375 तक के काल को चारण काल कहा है। जाहिर है कि संधि काल को अपभ्रंश भाषा की दृष्टि से रखकर प्रस्तावित किया गया है और चारण काल रासो काव्य को ध्यान में रखकर प्रस्तावित किया गया है। इन दोनों के बीच समरूपता नहीं है अर्थात् संश्लिष्ट रूप में एक नाम उभरकर सामने नहीं आ रहा है।
- राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक “मध्यकालीन काव्यधारा” में आदि काल को ‘सिद्ध सामन्त काल’ नाम दिया है, जिसका काल सीमांकन वह 700 से 1300 ई. तक करते हैं। सिद्धसामंत काल को इसलिए युक्तिसंगत नहीं माना जाता है क्योंकि सिद्ध रचनाकार थे और सामंत रचनाकारों के आश्रयदाता थे। दो नामों से राहुल दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों की सूचना देते हैं जिनके बीच समरूपता और सामंजस्य का अभाव है। सामन्त काल से वह सामन्त युगीन प्रवृत्तियों को संकेतित करना चाहते हैं अर्थात् चारणकाल या रासो काव्य को लक्षित करना चाहते हैं और सिद्ध नाम से वह सिद्ध काव्यधारा को इंगित करना चाहते हैं। वह इस नाम के अन्तर्गत समुचे आदिकालीन साहित्य को नहीं समेट पाते हैं जैन साहित्य, नाथ साहित्य और लौकिक साहित्य की धाराएँ छूट जाती है।
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदिकाल नाम प्रस्तावित करते हैं। वह अपने ग्रंथ “हिन्दी साहित्य का आदिकाल” में साहित्य इतिहास के प्रथम चरण आदिकाल के अन्तर्गत जैन काव्य, सिद्ध काव्य, नाथ काव्य, लौकिक और चारण काव्य समेत सभी काव्यधाराओं को समेट लेते हैं। उनका मानना है कि जैन काव्य, सिद्ध काव्य तथा नाथ काव्य में भी उत्कृष्ट रचना का अंश मिलता है उसे सांप्रदायिक कहकर साहित्य से हटाया नहीं जा सकता। आचार्य द्विवेदी का मानना है कि 1000 ई. से 14000 ई. तक की अवधि में हिन्दी का रूप अपभ्रंश की छत्रछाया में मुक्त रूप हो निखरने लगता है किन्तु 1000 ई. से पहले अथवा 7वीं शताब्दी के मध्य से जो साहित्य रचना देखी जाती है वह अपभ्रंश की रचना होते हुए भी प्रवृत्तियों के आधार पर एवं भाषाई आधार पर मानों हिन्दी की भूमिका का निम्ग्रण कर रहा हो।
- डॉ. नगेन्द्र, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह जैसे विद्वानों ने आदिकाल नाम को ही युक्ति संगत माना है। बच्चन सिंह ने “हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास” पुस्तक में एक नया नाम प्रस्तावित किया है : अपभ्रंशकाल- जातीय साहित्य का उदय। किन्तु यह नाम आदिकाल जैसा उपयुक्त नहीं है। अरस्तु उक्त काल खण्ड के लिए “आदिकाल” नाम की युक्तिसंगत है।
(ii) भक्तिकाल
- सृजन की दृष्टि से हिन्दी साहित्य का पूर्व मध्यकाल जिसे भक्तिकाल कहा जाता है अत्यधिक वैभवशाली युग है। जॉर्ज ग्रियर्सन 1400 ई. से ही भक्ति काव्य की शुरुआत मानते हैं। ग्रियर्सन ने भक्तिकाल स्वर्ण युग की संज्ञा दी है। भक्तिकाल की आरंभिक सीमा 1400 ई. मानना उचित प्रतित होता है। भक्तिकाल की अंतिम सीमा के निर्धारण में थोड़ा विवाद है। विवाद के कारण ‘केशवदास’ हैं। केशवदास भक्तिकाल के कवि हैं या रीतिकाल के, विवाद का यही बिंदु हैं। केशव का रचनाकाल (1555-1617 ई.) है। रचनाकाल की दृष्टि से केशव भक्तिकाल में आते हैं, लेकिन उनकी रचना शैली और साहित्यिक चेतना का स्वर रीतिवादी है। आचार्य शुक्ल द्वारा खींची गई वह सीमा रेखा हिन्दी साहित्य में मान्य हो चली है। अत: भक्तिकाल की अंतिम सीमा को 1643 ई. स्वीकार करना उचित होगा।
- भक्तिकाल के नामकरण के संबंध में कोई विवाद नहीं है। लगभग सभी साहित्यकारों ने एकमत से इस नाम का समर्थन किया है। भक्तिकाल में जो सामग्री मिलती है उसके दो भाग किए गए हैं- निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति। निर्गुण भक्ति के क्रमशः दो विभाजन किए गए हैं ज्ञानाश्रयी शाखा और प्रेममार्गी शाखा। सगुण भक्ति के अन्तर्गत रामभक्ति और कृष्ण भक्ति का अलग-अलग विभाजन किया गया है। यथार्थ रूप में भक्ति आंदोलन एक जनआंदोलन था।
(iii) रीतिकाल
- हिन्दी साहित्य के इतिहास में उत्तर मध्यकाल की समय सीमा 1643 ई. से 1843 ई. तक स्वीकार किया गया है। यह काल विभाजन आचार्य शुक्ल ने किया था जिसे बाद के इतिहासकारों ने भी मान्यता दी। मिश्र बन्धुओं ने रीतिकाल को ‘अलंकृत काल’ कहन अधिक उचित समझा। आचार्य शुक्ल ने व्यवस्थित इतिहास अध्ययन और इतिहास दृष्टि के आधार पर उत्तर मध्यकाल को ‘रीतिकाल’ नाम से संबोधित किया। शुक्ल जी के बाद डॉ. रामकुमार वर्मा ने कलात्मक गौरव को रेखांकित करते हुए ‘कलाकाल’ की संज्ञा दी, डॉ. रसाल ने इस युग को ‘काव्यकला काल’ कहना अधिक उपयुक्त माना है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इस काल को ‘शृंगार काल’ नाम से संबोधित करते हैं। ‘रीतिकाल’ नाम विद्वानों में सर्वमान्य है जो शुक्ल जी द्वारा प्रस्तावित किया गया है।
(iv) आधुनिक काल
- आधुनिक हिन्दी के विकास की प्रारंभिक सीमा को आचार्य शुक्ल 1843 ई. मानते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा आधुनिक काल का प्रारंभ 1868 ई. से मानते हैं, जब से भारतेन्दु लेखन का प्रारंभ करते हैं। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय 1850 ई. से हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग का प्रारंभ मानते हैं। वैज्ञानिक घटनाओं और राजनैतिक घटनाओं के प्रभाव को देखते हुए हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग का प्रारंभ 1850 ई. से मानना उचित प्रतित होता है। दूसरा कारण यह है कि 1850 ई. भारतेन्दु का जन्मकाल है। 1850 ई. से 1900 ई. तक के 50 वर्ष के साहित्य के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास में तीन चार नाम प्रस्तावित किए गए हैं। इस कालखंड के लिए परिवर्तन काल, पुनर्जागरण काल, आधुनिक काल और नवजागरण काल जैसे कुछ नाम सुझाए गए हैं। किंतु हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का योगदान अत्यधिक रहा है तो सर्वसहम्मति से 1850 ई. से 1900 ई. तक के काल को भारतेन्दु युग ही नाम ही स्वीकारा गया है।
(v) द्विवेदी युग
- आधुनिक हिन्दी साहित्य का दूसरा काल 1900 ई. से शुरू होता है। सरस्वती पत्रिका का प्रारंभ इसी वर्ष हुआ था। अधिकांश विद्वान सरस्वती पत्रिका के प्रारंभ से द्विवेदी युग की शुरुआत मानते हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस पत्रिका का संपादन 1903 से संभाला था। द्विवेदी युग के नामकरण के संबंध में विद्वानों में विशेष विवाद नहीं है। द्विवेदी युग का काल 1400-1920 ई. ठहरता है।
(vi) छायावाद
- द्विवेदी युग की अंतिम सीमा और छायावाद के प्रारंभ के संबंध में लगभग आम सहमति से 1920 ई. को माना गया है। इसी के आसपास छायावादी साहित्य का आरंभ होता है। छायावाद की अंतिम सीमा 1936 ई. मानी जाती है। 1936 ई. में प्रसाद की ‘कामायनी’, निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ और प्रेमचन्द का ‘गोदान’ रचा जा चुका था। इसके साथ ही इसी वर्ष प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई थी। अतः 1936 ई. को छायावाद की अंतिम सीमा माना गया है। छायावाद के नाम पर भी सभी विद्वानों में आम सहमती है।
(vii) छायावादोत्तर काल:
- छायावादोत्तर साहित्य में प्रगतिवाद, राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता, प्रयोगवाद, नई कविता, नई कहानी, अकविता के कुछ प्रमुख आंदोलन चले। इस नये साहित्य के आंदोलन के नामकरण और कालविभाजन पर कोई विशेष चर्चा नहीं है।