हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

हिंदी : रघुवीर सहाय Hindi Kavita : Raghuvir Sahay

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रघुवीर सहाय ‘हिन्दी भाषा’ के एक बहुत बड़े पैरोकार के रूप में हमें दिखाए देते हैं, जो अपनी कविताओं के माध्यम से निरंतर इस मुद्दे को समाज में उठाते रहे हैं। अंग्रेज़ी की महत्ता और हिन्दी को मिलने वाले सम्मान में कमी उन्हें तकलीफ देती थी, जिसका ज़िक्र वह अपनी कविताओं में भी करते हैं कि किस प्रकार हम सोचते हिन्दी में हैं और व्यवहार अंग्रेज़ी में करने का प्रयत्न करते हैं। हिन्दी शीर्षक से लिखी उनकी यह कविता (Hindi Kavita) भी इसी मुद्दे को पुरज़ोर तरीके से हमारे समक्ष उठाती है और सोचने पर मजबूर करती है।

हम लड़ रहे थे
समाज को बदलने के लिए एक भाषा का युद्ध
पर हिंदी का प्रश्न अब हिंदी का प्रश्न नहीं रह गया
हम हार चुके हैं

अच्छे सैनिक
अपनी हार पहचान
अब वह सवाल जिसे भाषा की लड़ाई हम कहते थे
इस तरह पूछ :
हम सब जिनके ख़ातिर लड़ते थे
क्या हम वही थे ?
या उनके विरोधियों के हम दलाल थे
—सहृदय उपकारी शिक्षित दलाल?
सेनाएँ मारकर मनुष्य को

आजादी के मालिक जो हैं गुलाम हैं
उनके गुलाम हैं जो वे आजाद नहीं
हिंदी है मालिक की
तब आज़ादी के लिए लड़ने की भाषा फिर क्या होगी?

हिंदी की माँग
अब दलालों की अपने दास-मालिकों से
एक माँग है
बेहतर बर्ताव की
अधिकार की नहीं

वे हिंदी का प्रयोग अंग्रेज़ी की जगह
करते हैं
जबकि तथ्य यह है कि अंग्रेज़ी का प्रयोग
उनके मालिक हिंदी की जगह करते हैं
दोनों में यह रिश्ता तय हो गया है

जो इस पाखंड को मिटाएगा
हिंदी की दासता मिटाएगा
वह जन वही होगा जो हिंदी बोलकर
रख देगा हिरदै निरक्षर का खोलकर।

यह कविता हिन्दी (Hindi Kavita) दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. प्रोग्राम के सातवें सेमेस्टर में लगी हुई है। रचनाकार केंद्रित अध्ययन के अंतर्गत रघुवीर सहाय की यह कविता विद्यार्थियों को पढ़ाई जाएगी।

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