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सप्रसंग व्याख्या, सूरदास

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1.  उद्धव! यह मन निश्चय जानों।
मन क्रम बच मैं तुम्हैं पठावत ब्रज को तुरत पलानो।।
पूरन ब्रह्म, सकल, अविनासी ताके तुम हो ज्ञाता।
रेख, न रूप, जाति, कुल, नाही जाके नहीं पितु माता।।
यह मत दै गोपिन कहु आवहु बिरह नदी में भासति।
सूर तुरत यह जाय कहौ तुम ब्रह्म बिना नहीं आसति।।

संदर्भ- प्रस्तुत पद सूरदास के भ्रमरगीत सार नामक रचना से लिया गया है, जिसके संपादक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी हैं।

प्रसंग- प्रस्तुत पद में कवि सूरदास ने श्री कृष्ण और उद्धव के बीच के प्रसंग को बताते हैं। श्री कृष्ण उद्धव को ब्रज भेज रहे हैं ताकि वह ब्रजवासियों को जो वियोग में जल रहे हैं उन्हें आश्वासन एवं धैर्य धरा सके तथा उन्हें निर्गुण ब्रह्म की उपासना का भी ज्ञान दे सकें।        

व्याख्या- प्रस्तुत पद में श्री कृष्ण अपने मित्र उद्धव जी से कहते है कि तुम अपने मन में यह पूर्ण विश्वास कर लो कि मैं पूरे मन, वचन और कर्म से तुम्हें ब्रजमण्डल भेज रहा हूँ। इसमें संशय का कोई स्थान नहीं है। आगे श्री कृष्ण उद्धव के ज्ञान की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि तुम तो उस अविकल, अविनाशी, निराकार ब्रह्म के ज्ञाता हो, जिसका न कोई आकार प्रकार है, न कोई जाति-गोत्र और न ही माता-पितां अर्थात् वह ब्रह्म सभी गुणों से सम्पन्न होते हुए भी किसी गुण अथवा गुणों के समूह की सीमा में नहीं बंध सकता है, उद्धव तुम ब्रज जाकर गोपियों को अपने इस ज्ञान का पाठ पढ़ाओं, जो निरर्थक ही मेरे विरह (वियोग) में दिन रात डूबी रहती है। वियोग के कष्ट से उत्तरोत्तर क्षीण होती जा रही है। सूरदास के शब्दों में कृष्ण अपने मित्र उद्धव से कहते हैं कि हे उद्धव इस काम के लिए तुम तुरन्त जाओ और तुम उन गोपियों को बतला देना कि बिना निर्गुण ब्रह्मोपासना के सांसारिक मुक्ति संभव नहीं अर्थात् ब्रह्मज्ञान से ही मोक्ष सम्भव है, प्रेम और भक्ति से नहीं।

विशेष-

  1. सूरदास जी की भाषा अत्यन्त सरल एवं सरस है।      
  2. पद में वियोग शृंगार का वर्णन हुआ है।      
  3. अलंकारों का प्रयोग भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है।
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