मॉडल प्रश्न उत्तर, हिन्दी कविता सेमेस्टर-2, इकाई-1

निम्नलिखित मॉडल प्रश्नोत्तर बी.ए.(ऑनर्स) हिन्दी के सेमेस्टर-2 के पेपर हिन्दी कविता: सगुण भक्तिकाव्य एवं रीतिकालीन काव्य के हैं।
इकाई-1: गोस्वामी तुलसीदास: रामचरित मानस (सुंदरकांड)
प्रश्न-1. ‘सुंदर’ शब्द पर विचार करते हुए सुंदरकांड के वस्तु-शिल्प पर सौन्दर्य कि विवेचना करें।
उत्तर: हिन्दी साहित्य के एक हजार वर्षों की परंपरा में तुलसीकृत “रामचरित मानस” को सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य होने का गौरव प्राप्त हुआ है। उसमें भी इसके पाँचवे सोपान ‘सुंदरकांड’ का भक्ति की दृष्टि से विशेष महत्व है। इसका पाठ रामभक्तों के लिए अमूल्य निधि की तरह है, पर विचारणीय प्रश्न यह है कि इसका नाम ‘सुंदरकांड’ क्यों रखा गया है, वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास तक ने राम-कथा के अन्य कांडों का नाम कथा की घटनाओं के को बोध कराने वाला वस्तुनिर्देशात्मक है। जैसे ‘बालकाण्ड’ में श्री राम और उनके भाइयों का बचपन व बाल लीला, ‘अयोध्याकाण्ड’ में अयोध्या में हुई घटनाओं का विन्यासित वर्णन है। ‘अरण्यकाण्ड’ में दण्डकारण्य में हुई घटनाओं का वर्णन है। केवल सुंदरकांड इसका अपवाद लगता है।
‘सुंदरकांड’ नाम के प्रयोजन में पहला तर्क यह है कि लंका नगरी त्रिकुट पर्वत पर स्थित है। इसके तीनों शिखरों के नाम हैं- नील, सूबेल तथा सुंदर। जिसमें नील शिखर पर राक्षसों का आवास था, सूबेल पर्वत पर विशाल मैदान थे जिसपर समुद्र पार कर श्री राम की सेना रुकी थी। तीसरा शिखर सुंदर था जिसपर अशोक वाटिका थी जो इस कांड की सम्पूर्ण घटना के केंद्र में है।
तुलसीदास जी ने लिखा है-
“सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेऊ ता ऊपर।।”
यहाँ तुलसी ने भूधर को सुंदर कहा है, नामोलेख नहीं किया है, वाल्मीकि ने रामायण और आध्यात्म रामायण में उसका नाम ‘महेंद्र’ शिखर कहा है।
दूसरा तर्क यह है कि किष्किंधा कांड तक प्रभु श्री राम और माता सीता बिछड़ चुके हैं और श्री राम और लक्ष्मण उन्हें पुनः वापस पाने को व्यगत हो वन में भटक रहे हैं, ऐसे में हनुमान के कारण उनका प्राप्ति का साधन सुलभ हो पाया और वे परमानंदित हो गए। असाध्य की प्राप्ति के परमसुख का प्रमाण इसमें है। जहां प्रभु श्री राम हनुमान के इस कार्य की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-
“सुन कपि तोहिं समान उपकारी।
नहि कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रीति उपकार करौं का तोरा।
धनमुख होई न सकत मन मोर।।
सुन सूट तोहि उसि मैं नाहिं।
देखऊँ कर बिचारी मन माहीं।।”
तीसरा तर्क यह है कि किष्किन्धा कांड में जब संपाती ने जानकारी दि कि सीता त्रिकुट पर्वत पर स्थित लंका नगरी में अशोक वाटिका में बैठी हैं जो समुद्र के पार सौ योजन पर स्थित है और जो इस समुद्र को पार करेगा वही राम का कार्य सिद्ध कर सकता है। सभी वानरों ने अपने बल बखाने पर समुद्र पार करने में असमर्थ रहे। तब जामवंत ने हनुमान को उनकी शक्तियों का एहसास करवाया तथा श्री राम द्वारा किए गए विश्वास का आधार दिया। जामवंत ने जब कहा कि तुम्हारा जन्म केवल राम कार्य के लिए ही हुआ है, तो जामवंत के ये वचन हनुमान को आती सुंदर और प्रिय लगे-
“जामवंत के वचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।”
यहाँ सुहाए का अर्थ ‘सुंदर’ है और यहीं से सुंदरकांड का प्रारंभ होता है। हनुमान ने अपने बाल, बुद्धि व पराक्रम से अपने आराध्य श्री राम का संकट हर कर नवधा भक्ति में श्रेष्ठ बहकी के प्रतीक हास्य भाव कि भक्ति का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसलिए इसका नाम ‘सुंदरकांड; रखा गया।
चौथा तर्क यह है कि जब हनुमान लंका से वापस आते हैं और प्रभु श्री राम को माता सीता का समाचार सुनाते हैं तब प्रभु राम हनुमान की प्रशंसा करते हैं जिसे सुनकर हनुमान अपना सिर प्रभु के चरणों में रख देते हैं। इस पर शिव जी जो पार्वती को कथा सुना रहे हैं, वह अत्यंत भाव विह्वल हो जाते हैं, कुछ देर रुक जाते हैं, पुनः स्वाभाविक दशा में आकर अति सुंदर कथा कहना प्रारंभ करते हैं-
“प्रभु कर पंकज कपि के सीसा….
लागन कहाँ कथा अति सुंदर।।
पाँचवा तर्क उल्लेखनीय है जिसका संदर्भ आध्यात्मिकता से है। वस्तुतः किष्किन्धा कांड आते आते ऐसा प्रतीत होता है जैसे अधर्म अपने विजय पथ पर आरूढ़ है, श्री राम का विरह और अधैर्य इसका प्रमाण है, पर ढाय भाव के अनन्य भक्त हनुमान ने अपने पराक्रम से प्रभु कि कृपा से सीतान्वेषण ही नहीं, अशोक वाटिका उखाड़कर, वीर राक्षसों को मार कर तथा लंका दहन कर रावण के घमंड को चूर चूर कर दिया और साथ ही धर्म के विजय ध्वज का पथ प्रशस्त कर ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ कि अवधारणा को प्रतिष्ठापित किया। हनुमान के इस कृत्य कि प्रशंसा देवलोक ही नहीं बल्कि तीनों लोकों में है और स्वयं उनके आराध्य इतने अभिभूत हैं कि इनके उपकार के समक्ष स्वयं को नगण्य मानते हैं।
सगुण भक्ति का इससे बढ़ कर कोई आध्य नहीं हो सकता। इससे सुंदर भक्ति का कोई भाव नहीं हो सकता। इसी कारण हनुमान स सुंदर कोई नहीं, ऐसा संकट मोचक जिसने अपने कृत्य से अपने आराध्य तक का संकट हर लिया। ‘धर्म’ जिसकी प्रतिष्ठापना के लिए श्री राम अवतरित हुए थे, उसकी नींव को हनुमान ने सुंदर और अचल बना दिया। हनुमान स्वयं सुंदर के प्रतीक हो गए।