हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

निबंध का उद्भव और विकास

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हिन्दी साहित्य की अनेक विधाएँ जिनमें नाटक, उपन्यास, कहानी, कविता, निबंध, लघुकथा, रेखाचित्र, संस्मरण आदि सम्मिलित है। प्रत्येक विधा अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। साहित्य में उसका स्थापना अपना अलग वजूद रखता है। कोई भी विधा किसी से कम नहीं आंकी जाती है पर निबंध को इन सभी विधाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसलिए निबंध को गद्य की कसौटी कहा जाता है। आचार्य शुक्ल ने ही इसे ‘गद्य की कसौटी’ माना है। पाश्चात्यआलोचक ‘जानसन’ इसे ‘मुक्त मन की उड़ान कहते हैं। अंग्रेजी साहित्य के प्रथम निबंधकार लार्ड बेकन बिखरावयुक्त चिंतन’ को निबंध की संज्ञा देते हैं। हिन्दी साहित्य में निबंध विधा की शुरूआत अंग्रेजी साहित्य के ‘ऐस्से’ के प्रभाव से मानी जाती है। अंग्रेजी के ‘ऐस्से’ (Essay) के प्रभाव से निर्मित आज का हिंदी निबंध साहित्य संस्कृति की उस प्राचीन परंपरा से भिन्न है। यह आत्मवृत्त प्रधान, व्यक्ति व्यंजक, विचार तथा दर्शन से समन्वित तथा भावों से संयुक्त रचना है। सरसता, रोचकता, सारगर्भिता, संक्षिप्तता और संगति इसकी विशेषताएँ हैं। इसमें कल्पना, विचार, वर्णन, रागात्मकता और व्यंग्य तथा हास्य जैसे गुण विद्यमान हैं। “निबंध हिंदी साहित्य का नितांत आधुनिक रूप है।” यह प्रबंध और लेख से भिन्न है। विषय और शैली के आधार पर इसके भावात्मक, विचारात्मक, वर्णनात्मक ललित, व्यंग्य तथा हास्य ऐसे अनेक प्रकार बनते हैं। इन प्रकारों में ललित निबंध आज प्रमुख और बहुचर्चित बन गया है। ललित निबंध को आत्मपरक, विषय-प्रधान और व्यक्तिनिष्ठ निबंध भी कहते हैं। हिन्दी साहित्य को यह आधुनिक युग की देन है। “ललित शब्द सन् 1940 के बाद रचित हिन्दी के व्यक्ति–व्यंजक निबंधों के लिए रूढ़-सा हो गया है।” ‘ललित निबंध’ निबंध के साथ ‘ललित’ विशेषण से बना है। ललित से तात्पर्य विदग्धता और रसप्रवणता है। ‘ललित निबंध’ में ‘ललित’ के अनेक अर्थ है। सामान्यतः सुंदर, मनोहर वस्तु के संदर्भ में ‘ललित’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘ललित’ शब्द के कोशपरक अर्थों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि “ललित शब्द का प्रयोग सुंदर मनोहर, लावण्यमय और सुहावना आदि के लिए किया जाता है। ‘ललित’ शब्द ‘लल्’ क्रिया से ‘वत्त’ प्रत्यय लगाकर बना है, जिसका अर्थ है- सुंदर। अर्थात् सुंदर तथा मनोहारी निबंध को हम ललित निबंध कह सकते हैं। ललित निबंध को परिभाषित करते हुए अज्ञेय जी कहते हैं कि “कोई विशेष मनोदशा जब अपने को प्रकट करने के लिए एक लीलाभाव अपनाए, जब निबंध में प्रस्तुत की गई वस्तु का चयन और नियोजन राग रंजित दृष्टि से किया जाए तो तभी रचना के लालित्य को महत्त्व का स्थान दिया जाएगा तभी निबंध ललित निबंध कहलाएगा।” कुबेरनाथ राय ललित निबंध के बारे में कहते हैं कि “विषय के आसपास शिव के साँड़ की भाँति मुक्त चरण और विचरण ललित निबंध है।” ख्यात निबंधकार श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ललित निबंध की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि “ललित वह है जो मनुष्यता को ललित करने के लिए प्रयुक्त हो। वह कोमलकांत पदावली की तरह न हो, वह पौरुषेय, ज्वलित और अपने समय के सवालों से जूझने वाला भी हो।” तात्पर्य यह है कि ललित या आत्मपरक निबंध मुक्त मन की सुंदर उड़ान के साथ ही समय की वास्तविक चेतना से भी जुड़ा होता है। उसमें समसामयिक लालित्य तत्त्व के रूप में रूपायित होता है। ललित निबंध अपने लालित्य से पाठकों को सम्मोहित करता हैं लालित्य उसकी आत्मा होती है। इसमें लेखक का व्यक्तित्व प्रधान होता है। विषय इन निबंधों में गौण होते हैं। पत्र-पत्रिकाओं का कोई भी विज्ञापन, किसी लेखक की कोई पंक्ति, कोई भी घटना अथवा बाह्यजगत के प्रति कोई भी प्रतिक्रिया निबंध का रूप ले लेती है। निबंधकार बिना किसी पूर्व योजना के किसी बात को उठा सकता है। इससे धीरे-धीरे बात-बात में बात बन जाती है। एक साधारण विषय भी लेखक के व्यक्तित्व का अद्भूत स्पर्श पाकर इन निबंधों में निखर उठता है। सरस भाषा में प्रस्तुत लेखक का मुक्त और मस्त व्यक्तित्व पाठक को आकर्षित कर देता है। इससे लेखक और पाठक के मध्य दूरी मिट जाती है। रागात्मकता तथा सौंदर्यनिष्ठा ललित निबंध में सर्वप्रधान होती है। प्रभावोत्पादकता, विचार परंपरा और हृदय का माधुर्य इसमें विद्यमान होता है। कल्पना तत्त्व भी इसमें प्रधान होता है। अनुभूति की तीव्रता और गहनता के कारण पाठक इन निबंधों के प्रवाह में सराबोर हो जाते हैं, लालित्य और वैचारिकता का संयोग भी इसमें दिखाई पड़ता है। भाषा का लावण्य और शैली की रोचकता ललित निबंधों के मुख्य लक्षण माने जाते हैं। विषय के प्रतिपादन की अपेक्षा शैली की विशिष्टता और रोचकता इन निबंधों में अधिक होती है। लेखक के सृजनशील व्यक्तित्व की छाप पूरे निबंध में लक्षित होती है। व्यक्तितव ललित निबंध का प्राण तत्त्व हैं ललित निबंधों की भाषा गीत के समान लयबद्ध, कभी बिखरी हुई, कभी अस्पष्ट, कभी छंदोमय, कभी नीजी बातचीत के समान होती है। इसलिए पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि “जो निबंध एक साथ काव्य और शास्त्र दोनों हो वह ललित निबंध है।” अर्थात् ललित निबंध की भाषा किसी पागल का प्रलाप नहीं वरन् एक भावुक स्वस्थ हृदय का प्रांजल आत्मीय आत्मनिवेदन होती है। ललित निबंध की भाषा सीधी-सरल, अनलंकृत और निर्मलता से अपने विचार प्रकट करने वाली होती हैं इसकी सादगी में ही एक अपूर्व माधुर्य छिपा रहता है। इसमें लेखक की सृजनधर्मिता, अभिरुचि, उदात्तता, वैचारिकता, मानवीयता, सहजता और सूत्रबद्धता का समोहक मिश्रण होता है। ये सारे पहलू निबंध में लालित्य का निर्माण करते हैं।

निबंध का विकास

निबंधों की विकास यात्रा से पूर्व निबंध की विकास यात्रा पर

दृष्टि डालना आवश्यक प्रतीत होता है। वस्तुतः निबंध का आगमन आधुनिक काल में होता है। विश्व में नई खोजों और नई मशीनों के निर्माण द्वारा मुद्रण के क्षेत्र में क्रांति आई। विश्व में विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ मुद्रण की खोज से अपना विस्तार एवं प्रगति की ओर उन्मुख हुई। मुद्रण ने अन्य विधाओं के साथ-साथ निबंध विधा द्वारा साहित्य को नई दिशा दी। निबंध भी मानव की भावाभिव्यक्ति का प्रमुख साधन है। निबंधों के ही समानान्तर जब रचनाकार ने अपनी नीजी सुख-दुख, आत्मीय अनुभूतियों को निबंध में स्थान दिया तो ये निबंध नइ विधा यानि ललित निबंध के रूप में पाठक वर्ग के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। समय के प्रवाह के साथ-साथ ललित निबंधों ने हिंदी गद्य विद्या में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली। ललित निबंध के उद्भव काल की बात की जाए तो भारतेंदु युग को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा चुका है।

          इस विधा को विकसित करने में भारतेंदु एवं उनके लेखक मंडल का कार्य विशेष उल्लेखीनय रहा। इस विधा की परम्परा को समृद्धता के सौपानों तक ले जाने में अनेक ललित निबंधकारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतेन्दु से लेकर प्रतापनारायण मिश्र, पदुमलाल पन्नालाल बख्शी, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, सरदार पूर्ण सिंह बालकृष्ण भट्ट, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामवृक्ष बेनीपुरी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, विवेकी राय, बाबूराम, श्रीराम परिहार एवं राम अवध शास्त्री सरीखें ललित निबंधकारों ने ललित निबंध परम्परा को हिन्दी गद्य साहित्य एवं लालित्य से परिपूर्ण विधा के रूप में स्थापित किया। ललित निबंध की यात्रा एवं उसके विकास के सोपानों को हिन्दी साहित्य के महान विद्वानों के युगों से जोड़कर विकास यात्रा का वर्णन इस प्रकार है

(i)   भारतेंदु युगः

भारतेंदु युग विभिन्न विधाओं के लिए वरदान सिद्ध हुआ। भारतेंदु हरश्चिन्द्र, प्रतापनारायण एवं बालकृष्ण भट्ट के निबंधों में ललित निबंधों के बीज विद्यमान है। भारतेंदु युग के इन प्रसिद्ध निबंधकारों ने ललित निबंध की भावभूमि, भविष्य की इस विधा के लिए तैयार कर दी। जहाँ भारतेंदु के निबंधों में राष्ट्रीयता की भावना एवं आत्मीयता के बोध के साथ ब्रिटिश शासन के प्रति व्यंग्यात्मकता के माध्यम से उनका प्रतिहार करना रहा। बालकृष्ण भट्ट के ललित निबंधों में भाव प्रधानता प्रमुख थी जिनमें ललित निबंधों की महक अनायास महसूस होती थी। प्रतापनारायण इस परंपरा के प्रसिद्ध निबंधकार थे। जिनके निबंधों में भावी ललित निबंधों की बनक दिखलाई पड़ती है। भारतेंदु युग के निबंधकारों में विषय की गम्भीरता प्रमुख रही। भारतेंदु युग केवल ललित निबंधों के युग का प्रारम्भ ही नहीं अपितु कई अन्य विधाओं को भी इस काल में उचित वातावरण मिला। वैसे तो निबंध ‘चूसा पैगम्बर’ जो भारतेंदु द्वारा रचित था को ललित निबंध के प्रारंभ के तौर पर माना जाता है। भारतेंदु काल में यह विधा शैशवास्था में थी। जिसमें ललित निबंधों का अभाव मात्र था। इसके इत्तर इन निबंधों में निजीपन की अनुभूति अवश्यक विद्यमान रही है। भारतेंदु युग में बालकृष्ण भट्ट निबंध परंपरा के प्रसिद्ध निबंधकार हैं। इनके निबंधों में पत्नीसत्व, माता का स्नेह, चन्द्रोदय, आँसू, आँख आदि महत्त्वपूर्ण है जिनमें ललित निबंधों की झलक मिलती है। बालकृष्ण भट्ट के पश्चात् भारतेंदु युग के प्रसिद्ध निबंधकार है- प्रतापनारायण मिश्र जी। कार्यक्षेत्र की दृष्टि से प्रतापनारायण जी निबंधकार के साथ-साथ पत्रकार भी थे। इनके निबंधों में ललित की छाप स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। इनके निबंधों में प्रमुख हैं दाँत, पेट, बात, आप, धोखा आदि। इन्होंने इन विषयों को आधार बनाकर ललित परंपरा का मार्ग प्रशस्त किया। इस युग में कहीं न कहीं ललित तत्त्व मौजूद था। भारतेंदु युग ने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ललित निबंध परंपरा को गति दी।

 (ii)  द्विवेदी युगः

भारतेंदु युग के उपरान्त हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का आविर्भाव होता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी ललित निबंध को नई भावभूमि पर प्रतिष्ठित करते हैं। उन्होंने हिंदी ललित विधा को नई पहचान दी। द्विवेदी जी के निबंधों में भारतीय सांस्कृतिक परंपरा की अद्भुत समझ एवं नव्य चेतना भी विद्यमान है। इनका भाषा सौष्ठव अद्भुत है। इनके ललित निबंधों में “मेरी जन्म भूमि, एक कुत्ता एक मैना, शिरीष के फूल, नाखून क्यों बढ़ते हैं” आदि प्रमुख ललित निबंध है। इस युग के प्रसिद्ध निबंधकारों के निबंधों की विशेषता यह रही है कि इन सभी के निबंधों में भाव प्रधानता प्रमुख रही। विषय की गंभीरता भी इनके निबंधों की अन्य विशिष्टता रही है। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के निबंध लालित्य की बनक लिए हुए हैं। सरदार पूर्ण सिंह भी इस युग के प्रतिष्ठित निबंधकारों में आते हैं। इनके निबंधों में चिंतन व्यंग्यात्मकता, भाषा वैशिष्ट्य आदि विद्यमान है। इनके निबंधों में वैयक्तिकता के साथ-साथ मानवीय पहलुओं को भी वर्णित किया

गया है।

          द्विवेदी जी ने निबंधों के इत्तर लिखित निबंधों का मार्ग भी प्रगशस्त किया। द्विवेदी जी स्वयं एक प्रतिष्ठित निबंधकार थे। संस्कृत के भी वे प्रसिद्ध विद्वान थे। ‘मेघदूत’ उनका लालित्य से समृद्ध निबंध है। ‘साहित्य की मेहत्ता’ निबंध में द्विवेदी जी ने ललित निबंध विधा की कड़ी को आगे बढ़ाया। इसके अतिरिक्त ‘रसज्ञरंजन’ द्विवेदी जी का अन्य निबंध संग्रह है। द्विवेदी जी ने ललित निबंधों की विकास यात्रा में सराहनीय कार्य किया। पं. पदम सिंह शर्मा द्विवेदी युग के प्रसिद्ध निबंधकारों में से एक है जिनके निबंधों में ललित तत्त्व के दर्शन होते हैं। इनके निबंध संग्रहों में प्रमुख हैं- ‘पदम पराग’ और ‘प्रबंध मंजरी’ आते हैं। माधव प्रसाद द्विवेदी युग के प्रमुख निबंधकार है। धार्मिक प्रवृत्ति के कारण उनके निबंधों पर इसका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इनके निबंधों में ‘रामलीला’, ‘पर्व-त्यौहार’, ‘तीर्थ-स्थान’ आदि है, जिसका विषय भी धर्म ही रहा है। ये निबंध भी ललित निबंधों की परंपरा को आगे बढ़ाने में योगदान देते हैं। द्विवेदी जी के ही निबंधकार सरदार पूर्ण सिंह के निबंधों में निबंध का अलग ही स्वरूप देखने को मिलता है। इनके प्रसिद्ध निबंधों में ‘कन्यादान’, ‘सच्ची वीरता’, ‘आचरण की सभ्यता’, ‘प्रेम और मजदूरी’ आदि प्रमुख हैं। जिनमें लालित्य का रंग चढ़ा हुआ है। ये निबंध गद्य को अलग बनक देते हैं।

          द्विवेदी जी के समय से ही ललित निबंध को उसका नाम, संस्कार, व्यक्तित्व, गुण धर्म और लुभावन मिला। निबंध में ललित तत्त्व के बाहुल्य से व्यापक सांस्कृतिक और मानवीय संदर्भ समाविष्ट हुए। द्विवेदी जी ने संस्कृति की पुनर्व्याख्या की तथा उसे लोक के साथ जोड़ते हुए वर्तमान सांस्कृतिक संदर्भ दिये। निबंधों की वैचारिक कठिनता को तरलता दी। भाव के स्तर पर एक रुचिकर संघटन दी। द्विवेदी जी के निबंधों में नया युग रचा। संस्कृति, इतिहास, पुरातत्व, वेद, पुराण, लोक, ज्योतिष, विज्ञान आदि अनेक गवाक्ष ललित निबंधों में खुले। यह द्विवेदी जैसे युग-पुरुष की ललित निबंधों की देन है।

(iii)  शुक्ल युगः

द्विवेदी युग में निबंधों में लालित्य को परिष्कृत कर शुक्ल युग को इस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। द्विवेदी युग के उपरान्त हिन्दी साहित्य में एक महान् व्यक्तित्व का उदय हुआ, जिसने बेकन के समकक्ष रखे जाने योग्य निबंधों की रचना की। यह महान् व्यक्तित्व हैं, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल । शुक्ल जो सहज सिद्धान्तवादी, अध्ययनशील, चिंतक एवं संशक्त निबंधकार थे। उनकी कसौटी लोकमंगल, मूलकशील, शक्ति और सौंदर्य है और इसे ही उन्होंने साहित्य का सनातन मापदंड पूरे कृतित्व में माना है। वे प्रकृति और अतीत के प्रति भावुक थे। उनकी यह भावुकता भी उनके साहित्य में सर्वत्र व्यापक है। आचार्य शुक्ल ने अपनी प्रतिभा के द्वारा हिंदी साहित्य एवं उसके इतिहास को निर्धारित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका साहित्य उनके व्यक्तित्व की भाँति गंभीर था। आचार्य शुक्ल के निबंध विचार प्रधान को लिए हुए थे। ‘चिंतामणि’ के भागों में उनका निबंध संसार संकलित है। इनके निबंधों में वैयक्तिकता, व्यंग्यात्मकता एवं भावात्मकता का समावेश है। ललित निबंधों की परिपाटी को आगे बढ़ाने में शुक्ल जी ने उल्लेखनीय कार्य किया।

          शुक्ल युग के अन्य निबंधकारों में बाबू गुलाबराय एवं पदुमलाल पुन्नाला बख्शी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। बाबू गुलाबराय के प्रसिद्ध निबंध संग्रहों में ‘मेरी असफलताएँ’, ‘फिर निराश क्यों’ आदि प्रमुख हैं। श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ‘कुछ’, ‘पंत्रतंत्र’ और ‘क्या लिखू निबंधों में ललित तत्त्वों को समावेशित किए हुए हैं। छायावादी कवियों द्वारा भी ललित निबंधों के विकास में महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला। इस युग के अन्य निबंधकारों में वियोगी हरि, शान्तिप्रिय द्विवेदी तथा माखनलाल चतुर्वेदी सम्मिलित है। राहुल सांकृत्यायन ने भी अपने निबंधों के द्वारा इस विधा के विकास में महती भूमिका निभाई। इनकी रचना द्वारा इस विधा के विकास में महत्ती भूमिका निभाई। इनकी रचना ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ में भी ललित तत्त्व स्पष्ट देखे जा सकते हैं। छायावाद की प्रमुख लेखिका महादेवी वर्मा की रचनाओं जिनमें संस्करण एवं रेखाचित्र सम्मिलित हैं, में ललित निबंधों के दर्शन होते हैं। नन्ददुलारे वाजपेयी, इलाचन्द्र जोशी, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. देवराज उपाध्याय तथा इन्द्रनाथ मदान इस युग के  प्रमुख निबंधकारों में आते हैं। जैनेंद्र कुमार भी इस परमपरा के निबंधकार है। इसके अतिरिक्त निबंधकारों में दिवार प्रसाद विद्यार्थी उल्लेखनीय है। शदागम, टेलीफोन, लालटेन, बैलगाड़ी इनके व्यंग्यपूर्ण ललित निबंध है। इस युग में कुबेरनाथ राय, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, शिवप्रसाद सिंह, भगवतशरण उपाध्याय आदि महत्त्वपूर्ण ललित निबंधकार हैं जिन्होंने ललित निबंधों के विकास में उल्लेखनीय कार्य किया। कुबेरनाथ राय ने हिन्दी साहित्य की विधा को नया मुकाम दिया। इनके महत्त्वपूर्ण ललित निबंधों में इस आखेटक, प्रियानीलकंठी, गन्धमादन, कामधेनु, महाकवि की तर्जनी, निषाद बाँसुरी, पर्ण मुकुट, इन टूटे हुए दियों से काम चलाना आदि प्रमुख ललित निबंध है। जो भारतीय संस्कृति के बृहत् स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं। पौराणिक विषयों को आधार बनाकर, विभिन्न विषयों के साथ ललित निबंधों का संसार रचा। इन्होंने ललित निबंधों के विकास में महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

(iv)  आधुनिक कालः

हिंदी साहित्य के आधुनिक ललित निबंधकारों में विशेष स्थान रखने वाले ललित निबंधकार हैं- विद्यानिवास मिश्र जी। इनके निबंधों एवं ललित निबंधों ने इस विधा को हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं के समान प्रतिष्ठित करने में पूर्ण सहयोग दिया। भारतीय संस्कृति, पौराणिकता, प्रकृति चित्रण इनके ललित निबंधों के प्रिय विषय रहे हैं। इनके पसिद्ध ललित निबंधों में छितवन की छाँह’, ‘तुम चंदन हम पानी’, ‘बसंत आ गया’, ‘आँगन का पंछी और बनजारा मन’, ‘शैफाली झट रही है’, ‘अयोध्या उदास लगती है’ तथा ‘श्री’ है। राम के प्रति विशिष्ट लगाव इनके ललित निबंधों में स्पष्ट झलकता है। इसे निबंध लालित्य से परिपूर्ण ललित निबंध कहते हैं। निबंध परंपरा की कड़ी में आगे ललित निबंधकारों में श्री लक्ष्मीकांत झा, सियाराम शरण गुप्त, नामवर सिंह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। झा का ‘मैंने कहा’, सियारामशरण गुप्त का ‘झूठा सच’ तथा नामवर सिंह का ‘बकलम खुद’ आत्मपरक ललित निबंध कोटि के प्रमुख उदाहरण हैं।

          विवेकी राय हिंदी साहित्य में ललित निबंध परंपरा के प्रमुख ललित निबंधकार है। उनके प्रसिद्ध ललित निबंधों में फिर बेतलवा डाल पर, जुलूस रूका, गँवई गंध गुलाब, आम रास्ता नहीं, आस्था और चिंतन, वन तुलसी की गंध आदि प्रसिद्ध ललित निबंध है। ये ललित निबंध भारतीय जीवन एवं संस्कृति के महत्त्वपूर्ण पक्षों को रेखांकित करते हैं। इसी परंपरा को बढ़ाने में लक्ष्मीकांत रचित “मैंने कहा’ केदारनाथ अग्रवाल रचित ‘समय-समय पर’, लक्ष्मीचंद जैन रचित ‘कागज की किश्तियाँ’ संग्रहों ने ललित निबंध परंपरा को आगे बढ़ाया। धर्मवीर भारती ने भी ललित निबंधों के क्षेत्र में एवं निर्मल वर्मा सरीखे ललित निबंधकारों ने इस विधा को समृद्ध करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। निर्मल वर्मा ललित निबंधों में बाहरी महीन चादर प्रकृति वर्णन को बुनते हैं तथा उसे ओढ़कर वे भारतीय जीवन की आत्मा तक पहुँचते हैं।

          ‘मानसी गंगा’, ‘किस-किसी को नमन करूँ’, ‘क्या कहूँ कुछ कहा ना जाए’ आदि शिवप्रसाद जी के ललित निबंध संग्रह है। ललित निबंध परंपरा में नव्य हस्ताक्षरों में कृष्ण बिहारी मिश्र, श्याम सुन्दर दुबे, महेश अनद्य इन पंक्तियों के लेखक श्रीराम परिहार जी ने इस ललित निबंध संग्रहों में ‘धूप का अवसाद’, ‘आँच अलाव की’, ‘ठिठके पल पाँखुरी पर’, ‘झरते फूल हरसिंगार के’, ‘गूंजे तो शंख’ आदि विशुद्ध ललित निबंध है। इन ललित निबंधों में लालित्य का नव्य रूप उभरकर हमारे सम्मुख उपस्थित होता है। भारतीय संस्कृति की मानवकल्याण की भावना, प्रकृति प्रेम एवं राष्ट्रीय चेतना इनके ललित संग्रहों में उभरकर आती है। इन्होंने अपने ललित निबंधों द्वारा इस विधा के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य की ललित निबंध परंपरा पर दृष्टिपात किया जाए तो अभी तक इस परंपरा को विकसित करने में अनेकों निबंधकारों एवं ललित निबंधकारों ने अतुलनीय योगदान दिया।

निष्कर्षः

इस प्रकार हम देखते हैं कि ललित निबंध विधा का जन्म भारतेंदु युग से होता है। भारतेंदु युग में उत्पन्न हुई यह विधा द्विवेदी युग में अपने स्वरूप को विकसित करती हुई आगे बढ़ती है। द्विवेदीकाल में इस विधा को मजबूत आधार मिला जिससे यह विधा शुक्ल एवं शुक्लोत्तर युगों को लाँघकर उनसे रस ग्रहण करते हुए आधुनिक काल में आ जाती है। आधुनिक काल में इसे विकसित होने का स्वच्छ वातावरण मिलता है। इस विधा को हिन्दी साहित्य में स्थापित करने में हिन्दी साहित्य के निबंधकारों जिनमें भारतेंदु से लेकर आधुनिक काल के नव्य ललित निबंधकारों की मेहनत एवं श्रद्धा भावना प्रमुख है। आज ललित निबंध ने हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठित विधा के रूप में अपनी पहचान बना ली है।

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