हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

नवजागरण की परिस्थितियाँ और भारतेन्दु युग

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नवजागरण : 

हिन्दी साहित्य में आधुनिकता की शुरुआत का सम्बन्ध ‘भारतीय नवजागरण’ से है। भारतीय नवजागरण से मौलिक स्थापनाओं का जितना महत्त्व साहित्य के लिए है, उससे कहीं अधिक भारतीय इतिहास और विशेष रूप से हमारे राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के सामंतविरोधी और साम्राज्य–विरोधी पहलुओं से है। भारतीय नवजागरण का आरम्भ सन् 1857 है, जो भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम है। सन् 57 का गदर हिन्दी प्रदेश के नवजागरण की पहली मंजिल है। भारतेन्दु हरिश्चन्द का युग इसकी दूसरी मंजिल तथा द्विवेदी और उनके सहयोगियों का कार्यकाल नवजागरण की तीसरी मंजिल है। 19वीं शताब्दी के दौरान संपूर्ण भारत में एक नयी बौद्धिक चेतना और सांस्कृतिक उथल-पुथल दृष्टिगोचर होता है। इस काल में पूरे देश में मानवतावादी जीवन दृष्टि, विवेक की केंद्रीयता एवं आधुनिक ज्ञान विज्ञान का प्रसार हुआ। आधुनिक पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव और विदेशी शक्ति के हाथों पराजित होने की स्थिति में नई जाग्रति पैदा की। इस नई जाग्रति के परिणाम स्वरूप अपनी सामाजिक सांस्कृतिक दुर्बलताओं को लेकर नये सिरे से चिंतन आरम्भ हुआ। 19वीं सदी के भारत में जिस नवीन चेतना का उदय हो रहा था उसे कई नामों से संबोधित किया गया जैसे- रेनेसां, पुनर्जागरण, नवजागरण, पुनरुत्थान, प्रबोधन, नवोत्थान, समाज-सुधार आदि। प्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चंद्र के अनुसार “ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विस्तार और उसके साथ औपनिवेशिक संस्कृति और विचारधारा के प्रचार-प्रसार की प्रतिक्रिया में ही यह लहर उठनी शुरू हुई थी। औपनिवेशिक संस्कृति के खिलाफ यह प्रतिक्रिया हर जगह और हर समाज में अलग-अलग तरह की हुयी, यह बात हर जगह महसूस की गयी की सामाजिक धार्मिक जीवन में सुधार अब जरूरी हो गया है। सुधार की इस प्रक्रिया को आमतौर पर नवजागरण कहा जाता है।” 

          नवजागरण का अभिप्राय है- 19वीं सदी में घटित होने वाली जागरूकता। इस जागरूकता के विविध आयाम हैं। राजनैतिक क्षेत्र में स्वाधीनता की भावना का उदय हुआ परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता का प्रसार हुआ। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में राजाराममोहन राय को जाना जाता है। उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में स्त्री-पुरुष समानता के लिए व्यवहारित प्रयत्न किए। धर्म के क्षेत्र में मूर्तिपूजा जैसी अतार्किक आस्था पर दयानंद सरस्वती ने प्रश्न उठाए। चिंतन एवं दर्शन के क्षेत्र में परलौकिक चीजों को हाशिये पर डालकर इहलौकिकता की प्रतिष्ठा हुई। ईश्वर के स्थान पर अब मनुष्य केन्द्र में आया। इन्हीं तत्त्वो के समावेश से नवजागरण का वातावरण तैयार हुआ। नवजागरण का आश्य है वह दृष्टिकोण जिसके लिए मानवता, इहलौकिकता, तार्किकता, वैज्ञानिकता, समानता, आत्मान्वेषण, राष्ट्रीयता, स्वाधीनता आदि मूल्य अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। 

          हिन्दी में पुनर्जागरण शब्द अंग्रेजी के रेनेसां के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है। रामविलास शर्मा ने ‘किर्क’ और ‘रैबेन’ के कथानुसार लिखा है कि “16वीं सदी में इटली के नये युग को ला रिनास्विता (पुनर्जन्म) कहना आरंभ किया, 18वीं सदी में फ्रांस के विद्वान ने उसे रेनेसां कहा वहीं से यह शब्द हिन्दी में आया।” यदि युरोप की बात करें तो वहाँ नवजागरण जैसा कोई शब्द नहीं आया। युरोप में अंधकार के युग के बाद रेनेसां आया पर भारत में उन्नसवीं सदी के नवजागरण के पहले कोई अंधकार युग नहीं था। 

          पुनर्जागरण जहाँ पुनः जागने का पर्याय है वहीं नवजागरण नये सिरे से जाग्रत होने का अर्थ देता है। डॉ. रामविलास शर्मा ‘नवजागरण’ की धारणा पर विचार करते हुए लिखते हैं कि “एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में संक्रमण ही नवजागरण है। साथ ही उन्होंने यह भी लिखा है कि “किसी देश या उसके प्रदेश के सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन को हम नवजागरण कहते हैं। इसमें सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के प्रयत्न शामिल है। शूद्रों और स्त्रियों की स्थिति को बदलने के प्रयत्न नवजागरण के अंग है। धार्मिक सुधार, अंधविश्वासों के विरुद्ध प्रचार नवजागरण के अंतर्गत है। शिक्षा प्रसार, साहित्य रचना जैसे कार्य तो उसके अंतर्गत है ही। स्वाधीनता आंदोलन विदेशी प्रभुत्व के विरुद्ध चलाया हुआ राजनीतिक आंदोलन है। वह नवजागरण का एक भाग हे, उसका पर्याय नहीं। वह नवजागरण को प्रेरित कर सकता है, उसमें घुल मिल सकता है पर उसका स्थान नहीं ले सकता। स्वाधीनता आंदोलन के बिना भी नवजागरण संभव है, पर वह उच्च वर्गों तक सीमित रहेगा। वह समाज को बड़े पैमाने पर प्रभावित नहीं कर सकेगा। इसके विपरीत उच्च वर्गों तक सीमित रहेगा।” नवजागरण के लिए डॉ. शर्मा ने ‘लोक चेतना’ और ‘जातीय चेतना’ की पहचान को आवश्यक माना है। उनके अनुसार ‘कोई भी नवजागरण हो, उसका जातीय स्वरूप अवश्य होगा। सामंती संबंधों से बाहर निकालने हुए जन-समाज जातियों के रूप में गठित होते हैं। जातीय जागरण को ही अवसर नवजागरण कहा जाता है। 

          रामविलास शर्मा ने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में नवजागरण की व्याख्या की है। इन्होंने भक्ति आंदोलन के लोक जागरण को 1857 के स्वतंत्रता से जोड़कर नवजागरण की व्याख्या प्रस्तुत की है। इन्होंने भक्ति आंदोलन के सामंत विरोधी चरित्र को रेखांकित करते हुए इस दौर के लिए नवजागरण शब्द प्रयुक्त किया। साथ ही अंग्रेजों के आगमन के बाद 19वीं सदी में विकसित सामंत विरोधी तथा साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को रेखांकित करते हुए इस काल के लिए नवजागरण शब्द प्रयुक्त किया। इस तरह देखा जाए तो नवजागरण एक व्यापक अवधारणा बनकर सामने आती है जिसके एक अंग के रूप में स्वाधीनता आंदोलन का विकास होता है। इसकी व्यापकता में भक्तियुगीन लोकजागरण से लेकर भारतेन्दु कालीन स्वत्व बोध, द्विवेदी युगीन स्वाधीन चिंतन, छायावाद युगीन देशी सामंतवाद एवं विदेशी साम्राज्यवादी शोषण का प्रतिरोध शामिल है।

भारतेन्दु युग :

          भारतेन्दु युग आधुनिक कालिन हिन्दी साहित्य का पहला चरण है। अब इसका स्वीकृत नाम ‘भारतेन्दु युग’ है और यह नामकरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाम पर किया गया है। इस नामकरण में भारतेन्दु के व्यक्तित्व एवं इस कालखंड के साहित्य को उनकी देन की स्वीकृति निहित है। भारतेन्दु का महत्त्व आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रायः सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि- “भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का प्रभाव भाषा और साहित्य दोनों पर बड़ा गहरा पड़ा। उन्होंने जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिभाषित करके उसे बहुत ही चलता, मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिन्दी साहित्य को नये मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया। उनके भाषा संस्कार की महत्ता को सब लोगों ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया और वर्तमान हिन्दी गद्य के प्रवर्तक माने गये। इससे भी बड़ा काम उन्होंने यह किया कि साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया और उसे वे शिक्षित जनता के साहचर्य में लाए।” भारतेन्दु युग के प्रारम्भ के विषय में हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों में मतभेद है। आचार्य शुक्ल ने इसका प्रारंभ संवत् 1900 अर्थात् 1843 ई. से माना। इसमें संवत् 1900 को सीधा रखने के अतिरिक्त और कोई तुक नहीं है। इस युग को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले भारतेन्दु का जन्म 1850 ई. में हुआ था, इसलिए कुछ विद्वान इसी वर्ष को इस युग का आरंभ मानते हैं, किन्तु भारतेन्दु ने जन्म लेते ही हिन्दी साहित्य को प्रभावित नहीं कर दिया। यहाँ डॉ. बच्चन सिंह कि यह बात समझ में आती है कि, सन् 1857 को आधुनिक काल का प्रस्थान बिन्दु मानना चाहिए, क्योंकि पूरे भारतवर्ष में यह वर्ष एक निर्णायक मोड़ उपस्थित करता है। यह भारत स्वाधीनता संग्राम का वर्ष है। भारतेन्दु युग की अन्तिम सीमा 1900 ई. स्वीकार किया गया है। 

          भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रतिभा बहुआयामी थी, आधुनिक युग के प्रणेता के रूप में हम उन्हें देखते हैं। भारतेन्दु भाषा और विचार दोनों स्तर से भारतीय नवजागरण की संकल्पना से अनुप्राणित थे। भारतेन्दु युग की रचनाएँ एक तरफ नवजागरण की संकल्पनाएँ निर्मित कर रहे थे और दूसरी तरफ वह अपने समय में चले साम्राज्यवादी अभियान की सचेत भावना से आलोचना भी कर रहे थे। 

साहित्य क्षेत्र में भारतेन्दु का योगदान : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र मात्र एक कवि और कुशल गद्यकार ही नहीं थे, एक युग प्रवर्तक साहित्यकार भी थे। इनके इर्द-गिर्द कवियों और लेखकों का एक बड़ा समुदाय एकत्र हो गया था, जिसे भारतेन्दु मंडल के नाम से अभिहित किया जाता है। इस दृष्टि से बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, अम्बिकादत्ता व्यास, ठाकुर जगमोहन सिंह, राधाचरण गोस्वामी, बद्रीनारायण चौधरी, लाला श्रीनिवासदास आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु के साथ ही इनके मंडल के अधिकांश लेखकों की अपनी पत्रिकाएँ थीं। इन सबके माध्यम से भारतेन्दु ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के साथ ही नवजागरण और समाजसुधार का एक व्यापक अभियान चलाया था। पत्र-पत्रिकाओं में उठाए जाने वाले मुद्दों, इनमें आयोजित बहसों के माध्यम से जनजागरण की भावना का प्रचार-प्रसार होता था। धार्मिक अंध-विश्वास, सामाजिक रूढ़िवादिता, छुआ-छुत, ऊँची-नीच की भावना के विरोध और पारस्परिक मेल-मिलाप, समानता और स्वतंत्रता की भावना के महत्त्व को भारतेन्दु और उनके मण्डल के लेखक पूरे तालमेल के साथ अपने लेख और अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से प्रचारित-प्रसारित करते थे। 

          भारतेन्दु ने जनहित में एक व्यापक आंदोलन का सूत्रपात किया था। अपनी कविताओं के साथ ही उन्होंने अपने नाटकों में पहेली-मुकरी कजली, विरहा, चांचर, चैता, खेमटा, विदेशिया आदि लोकगीतों की शैली का प्रयोग कर जवजागरण का एक व्यापक अभियान छेड़ा था। ये सारे कार्य उनके साहित्यिक योगदान के साथ ही सामाजिक विकास में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हैं। 

भारतेन्दु युग की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ 

1.  देश प्रेम की व्यंजना : अंग्रेजों के दमन चक्र के आतंक में इस युग के कवि पहले तो विदेशी शासन का गुणगान करते नजर आते हैं, जिसे विद्वानों ने उनकी राजभक्ति बताया। 

                    परम दुखमय तिमिर जबै भारत में छायो,
                    तबहिं कृपा करि ईश ब्रिटिश सूरज प्रकटायो। 

          भारतेन्दु युग के कवियों को उम्मीद थी कि ब्रिटिश सरकार उनके देश में व्याप्त सभी समस्याओं को दूर कर पराधीनता तथा आर्थिक शोषण से मुक्ति दिलाएगी। बाद में उपनिवेशी साम्राज्यवाद की सुधारवादी नीति की कलह उनके सामने उतरती गई। वे इस बाद को समझ गये की साम्राज्यवाद सामंतवाद के साथ हाथ मिलाकर वही पुराना लूट खसोट का खेल खेल रहा है और जनता की वास्तविक तकलीफों को दूर करने का उसका इरादा पाकसाफ नहीं है। मननशील कवि समाज राष्ट्र की वास्तविक पुकार को शीघ्र ही समझ गया और उसने स्वदेश प्रेम के गीत गाने प्रारम्भ कर दिए- 

                    बहुत दिन बीते राम, प्रभु खोयो अपनो देस।
                    खोजत है अब बैठके, भाषा भोजन भेष।। 

          देश-प्रेम की भावना के कारण इन कवियों ने एक ओर तो अपने देश की अवनति का वर्णन करके आँसू बहाए तो दूसरी ओर अंग्रेज सरकार की आलोचना करके देशवासियों के मन में स्वराज्य की भावना जगाई। अंग्रेजों की कूटनीति का पर्दा फाश करते हुए भारतेन्दु ने लिखा- 

                    सत्रु सत्रु लड़वाइ दूर रहि देखिय तमाशा।
                    प्रबल देखिए जाहि ताहि मिलि दीजै आसा।। 

2. सामाजिक चेतना और जन-काव्य : समाज सुधार इस युग का प्रमुख स्वर रहा। इन्होंने किसी राजा या आश्रयदाता को संतुष्ट करने के लिए काव्य रचना नहीं की, बल्कि अपने हृदय की प्रेरणा से जनता तक अपनी भावना पहुँचाने के लिए काव्य रचना की। ये कवि पराधीन भारत को जगाना चाहते थे। इसलिए समाज सुधार के विभिन्न मुद्दों जैसे स्त्री-शिक्षा, विधवा-विवाह, समाज का आर्थिक उत्थान और समाज में एक दूसरे की सहायता आदि को मुखरित किया। यथा- 

                    निज धर्म भली विधि जानै, निज गौरव को पहिचानें।
                    स्त्री-गण को विद्या देवें, करि पतिव्रता यज्ञ लेवें।। 

3. भक्ति-भावना : इस युग के कवियों में भी भक्ति भावना दिखाई पड़ती है, लेकिन इनकी भक्ति-भावना का लक्ष्य अवश्य बदल गया। अब वे मुक्ति के लिए नहीं, अपितु देश-कल्याण के लिए भक्ति करते दिखाई देते हैं- 

                    कहाँ करुणानिधि केशव सोए
                    जगत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए। 

          सभी धार्मिक मत मतान्तरों को आलोचनात्मक दृष्टि से परखने के बाद ये कवि इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि सभी धर्मों की मूल दृष्टि एक ही है। मत मतान्तरों पर झगड़ने से कोई लाभ नहीं और सभी को अपने-अपने मतों को मानते हुए दूसरे धर्मों का आदर करना चाहिए: 

                    खंडन जग में काको कीजै
                    सब मत अपने ही तो हैं इनको कहा उत्तर दीजै। 

          इसलिए इन कवियों ने एक ऐसे मार्ग की कल्पना की, जिसमें आडम्बर रहित ईश्वर भक्ति का मार्ग सभी के लिए सुलभ हो सके। कुल मिलाकर इस युग की धार्मिक कविताएँ धार्मिक काव्य परम्परा को धार्मिक समन्वयवाद या धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त की ओर विकसित करने का प्रयास करती है। 

4. शृंगार और सौंदर्य वर्णन : इस युग के कवियों ने सौंदर्य और प्रेम का वर्णन भी किया है, किन्तु उसमें कहीं भी कामुकता और वासना का रंग दिखाई नहीं पड़ता। इनके प्रेम वर्णन में सर्वत्र स्वच्छता एवं गंभीरता है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काव्य से एक उदाहरण दृष्टव्य है 

                    हम कौन उपाय करै इनको हरिचन्द महा हठ ठानती हैं।
                    पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना आँकियाँ दुखियाँ नहीं मानती हैं।। 

5. प्राचीनता और नवीनता का समन्वय : इन कवियों ने एक ओर तो हिन्दी काव्य की पुरानी परम्परा के सुन्दर रूप को अपनाया, तो दूसरी ओर नयी परम्परा की स्थापना की। इन कवियों के लिए प्राचीनता वंदनीय थी तो नवीनता अभिनंदनीय। अतः ये प्राचीनता और नवीनता का समन्वय अपनी रचनाओं में करते रहे। भारतेन्दु अपनी ‘प्रबोधीनी’ शीर्षक कविता में ‘प्रभाती’ के रूप में प्राचीन परिपाटी के अनुसार कृष्ण को जगाते हैं और नवीनता का अभिनंनदन करते हुए उसमें राष्ट्रीयता समन्वय करके कहते हैं- 
                    डूबत भारत नाथ बेगि जागो अब जागो। 

6. हास्य-व्यंग : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एवं उनके सहयोगी कवियों ने हास्य-व्यंग की रचनाएँ भी की। उन्होंने अपने समय की विभिन्न बुराइयों पर व्यंग्य-बाण छोड़े हैं। भारतेन्दु की कविता से दो उदाहरण प्रस्तुत हैं-   

                    भीतर-भीतर सब रस चूसै, हंसि-हंसि के तन-मन-धन मुसै।
                    जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज।। 

                    इनकी उनकी खिदमत करो, रुपया देते-देते मरो।
                    तब आवैं मोहिं करन खराब, क्यों सखि साजन नहीं खिताब ।। 

  • शिल्पगत विशेषताएँ 

1.  भाषा और काव्य रूप : इन कवियों की कविता में प्रायः सरल ब्रजभाषा तथा मुक्तक शैली का ही प्रयोग अधिक किया गया है। इस युग के कवि पद्य तक ही सीमित नहीं हुए बल्कि गद्यकार भी बने। इन्होंने निबंध, उपन्यास, नाटक सभी क्षेत्र में लेखन किया। इस काल के कवि मंडल में कवि न केवल कवि था बल्कि वह संपादक और पत्रकार भी था। 

2. रस : इस काल में शृंगार, वीर और करुण रसों की अभिव्यक्ति की प्रवृत्ति प्रबल रही, किंतु इस काल का शृंगार रीतिकाल के शृंगार जैसा नग्न शृंगार न होकर परिष्कृत रुचि का शृंगार है। देश की दयनीय दशा के चित्रण में करुण रस प्रधान रहा है। 

3.  अलंकार : इस युग में कविता जन सामान्य की समस्याओं से सीधे जुड़ती है इसलिए अलंकारों की सजावट पर ध्यान नहीं देती किंतु अर्थालंकारों का जहाँ भी प्रयोग हुआ है, वह सफल है। 

सारांश : स्पष्ट है कि भारतेन्दु युग साहित्य के नवजागरण का युग था, जिसमें शताब्दियों से सोये हुए भारत ने अपनी आँखे खोलकर अंगड़ाई ली और कविता को राजमहलों से निकालकर जनता से उसका नाता जोड़ा। उसे कृत्रिमता से मुक्त कर स्वाभाविक बनाया, शृंगार को परिमार्जित रूप प्रदान किया और कविता के पद्य को प्रशस्त किया। भारतेन्दु और उनके सहयोगी लेखकों के साहित्य में जिन नये विषयों का समावेश हुआ, उसने आधुनिक काल की प्रवृत्तियों को जन्म दिया। इस प्रकार भारतेन्दु युग आधुनिक युग का प्रवेश द्वार सिद्ध होता है। 

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