टिप्पण: सामान्य परिचय।

प्रस्तावना
प्रत्येक कार्यालय में विभिन्न व्यक्तियों तथा संस्थाओं से समय-समय पर पत्र आते ही रहते हैं। इन पत्रों के उत्तर भी भेजे ही जाते हैं। जब भी कोई पत्र किसी कार्यालय में पहुँचता है, तब उसके साथ एक ऐसा सिलसिला प्रारंभ हो जाता है, जो उसके निपटान तक लगातार चलता रहता है। जब किसी पत्रादि के निपटान के लिए कोई कार्यवाही होती है, तो उसे टिप्पण-कार्य कहते हैं। दरअसल टिप्पण एक प्रक्रिया है और टिप्पणी उसका प्रतिफलन रूप होता है। अतः हम कह सकते हैं कि दफ्तरों के कार्यवाही में टिप्पण की अपनी एक अहम् भूमिका है, जिसे नकारा नहीं सकते।
टिप्पण का अर्थ एवं स्वरूप
‘टिप्पण शब्द संस्कृत की ‘टिप्’ धातु में ‘ल्यूट्’ (अन) लगाकर बना है। ‘टिप’ का अर्थ है भेजना तथा ‘टिप्पण’ का अर्थ है टीका। इस प्रकार टिप्पण का अर्थ भेजे जाने वाली टीका के संबंध में किया गया क्रियाकलाप। यह व्युत्पत्तिपरक अर्थ टिप्पण शब्द के वर्तमान अर्थ का समानार्थी न होने पर भी उससे मिलता-जुलता अवश्य है।
हिंदी में टिप्पण शब्द का प्रयोग अंग्रेजी में नोटिंग (Noting) शब्द के पर्याय रूप में किया जाता हैं। हरेक दफ्तर में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों तथा संस्थाओं से समय-समय पर पत्र आते ही रहते हैं। इन पत्रों के उत्तर भी देना आवश्यक होता है। जब भी कोई पत्र किसी संस्था में आता है, तब इसके साथ एक ऐसा कार्यवाही शुरू हो जाता है, जो उसके निपटाने तक निरंतर रूप से चलता रहता है। जब किसी पत्रादि के निपटान के लिए कोई कार्यवाही होती है, तो उसे ‘टिप्पण-कार्य’ कहते हैं। यह टिप्पण कार्य विभिन्न अधिकारियों की सीढ़ियाँ करता हुआ अंतत: उस अधिकारी के पास पहुँचता है, जो अंतिम निर्णय देने में पार सक्षम होता है। इन विभिन्न सोपानों को पार करने की प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में अनेक सुझाव, निर्देश आदि दिए जाते हैं, अपने सुझावों आदि को विभिन्न तथ्यों और सूचनाओं से पुष्ट किया जाता है। ये लिखित सुझाव या निर्देश टिप्पणी कहलाते हैं। इस प्रकार टिप्पण एक प्रक्रिया है और टिप्पणी उसका प्रतिफलित रूप होता है।
अर्थ एवं परिभाषा
समय-समय पर विद्वानों एवं राज्यीय सरकारों द्वारा प्रकाशित सरकारी कामकाज – संबंधी निर्देशिकाओं में टिप्पण को परिभाषा-निबध्य करने का प्रयत्न किया गया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल के सचिवालय द्वारा तैयार किए गए “सेंट्रल सेक्रेटिएट, मेन्युअल ऑफ ऑफिस प्रोसिजर” में टिप्पण की व्याख्या करते हुए लिखा गया है, “टिप्पण वे लिखित अभ्युक्तियाँ हैं, जो किसी विचाराधीन कागज के संबंध में लिखी जाती हैं, ताकि उसके निस्तारण में सहूलियत हो सके।” बिहार सरकार की ‘हिंदी प्रशिक्षण व्याख्यानमाला 2’ में टिप्पण की व्याख्या करते हुए कहा गया है, “पत्र के सार को बतलाते हुए उसके निर्णय के लिए अपना सुझाव देना ही टिप्पण है ।” उत्तर प्रदेश सरकार की हिंदी निर्देशिका में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है, “टिप्पण का उद्देश्य उन बातों को जिन पर निर्णय करना होता है, स्पष्ट रूप से तथा तर्कानुसारेण प्रस्तुत करना है। बातों की ओर भी संकेत करना है, जिनके आधार पर उक्त निर्णय संभवतः लिया जा सकता है।” इन तथा ऐसी ही अन्य परिभाषाओं के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि:
- टिप्पणी एक लिखित अभ्युक्ति है।
- यह अभ्युक्ति किसी भी कार्यालय में विचारार्थ प्रस्तुत किसी प्रकार के कागजात निपटाने के लिए लिखी जाती है।
- इसमें विचारार्थ प्रस्तुत किए गए कागजात के बारे में पहले की कार्रवाई, पत्र-व्यवहार आदि का संक्षेप हो सकता है, विचाराधीन समस्या के निपटान के लिए विकल्प हो सकते हैं, विभिन्न विकल्पों का विश्लेषण करते हुए तथा पूर्व दृष्टांतों अथवा पूर्ण निर्णयों, नियम, अधिनियम, विनियम, कानून, आदि का हवाला देते हुए तार्किक क्रम से प्रस्तुत एक ऐसा वक्तव्य हो सकता है, जिसमें यह सुझाया गया हो कि क्या करना चाहिए तथा सुझावों पर अधिकारियों से प्राप्त आदेश- निर्देश हो सकते हैं।
टिप्पण क्यों लिखे जाते है?
आपके मन में यह जिज्ञासा अवश्य होगी कि आखिर टिप्पण की जरूरत क्या है? किसी भी पत्र के उत्तर का सीधा प्रारूप तैयार करके संबंधित अधिकारी से अनुमोदन क्यों नहीं करवा लिया जाता। वास्तव में ‘टिप्पण-कार्य’ की जरूरत इसलिए होती है कि यदि बाद किसी निर्णय के सिलसिले में यह सवाल उठाया जाए कि वह निर्णय क्यों लिया गया था तो प्रत्युत्तर में उन परिस्थितियों, कारणों आदि का हवाला दिया जा सके, जिसके फलस्वरूप वह निर्णय लिया गया था। इस प्रकार से ‘टिप्पणी’ किसी भी निर्णय से संबंधित विभिन्न प्रश्नों का उत्तर देने क लिए एक स्थायी स्मृति – साधन है। इसके अतिरिक्त भविष्य में उठने वाले किसी मिलते-जुलते विषय के निपटाने के लिए भी ये पूर्व टिप्पणियाँ आधार – भूमि का काम करती हैं। इन सबके अतिरिक्त इसके माध्यम से
(1) निर्णय लेने वाले अधिकारी को पत्र आदि में निहित विभिन्न समस्याओं के बारे में जानकारी हो जाती है;
(2) क्रियान्वयन के लिए विभिन्न विकल्प ज्ञात हो जाते है;
(3) यह निर्णय करना सरल हो जाता है कि किसी एक विकल्प को क्यों चुनना चाहिए तथा शेष को क्यों छोड देना चाहिए?
टिप्पण-लेखन के सिद्धांत
‘टिप्पण’ के संबंध सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक नियम बनाना संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि ‘टिप्पण’ लिखना भी एक कला है। यह कला अभ्यास की अपेक्षा करती है। अभ्यास के फलस्वरूप ही विषयानुरूप, तार्किक, निभ्रांत एवं प्रभावी टिप्पण कार्य की सामर्थ्य पैदा होती है। लेकिन फिर भी कतिपय बातें ऐसी हैं, जिनका ध्यान तो टिप्पण – कार्य करते समय हर टिप्पणीकार को रखना ही पड़ता विशेषताएँ दो वर्गों में बाँटी जा सकती हैं-
- बहिरंग विशेषताएँ
- अतरंग विशेषताएँ
बहिरंग विशेषताएँ
1) मूल पत्र पर टिप्पण की कार्य न करना : टिप्पण-कार्य कभी भी पत्र पर नहीं किया जाता। यह सदैव टिप्पण के लिए निर्धारित कागज पर किया जाता है। यह सामान्यतः एक बिना लकीर का फुलस्केप कागज होता है, जिसमें बाईं ओर काफी मार्जिन छोड़कर एक लकीर होती है। यदि किसी कार्यालय में टिप्पण-कार्य के लिए कोई निर्धारित प्रपत्र न हो तो फिर टिप्पण – कार्य फुल-स्केप आकार के कागज पर करना चाहिए। यदि किसी अधिकारी ने मूलपत्र पर ही अपने निर्देश अंकित कर दिए हों तो फिर उनकी प्रतिलिपि करवा कर संचिका में पृथक से लगवा लेनी चाहिए।
2) पत्राचार का विवरण एवं संकेत करना : टिप्पण लिखने से पहले टिप्पणीकर्त्ता को पत्राचार संबंधी आवश्यक विवरण अवश्य देना चाहिए, यथा क्रम संख्या 21, आगरा डिवीजन के कमीश्नर का पत्र, दिनांक 21 अगस्त, 1985, पृष्ट 46, पत्र-व्यवहार। –
3) प्रारंभ में वाद-विषय का उल्लेख करना : टिप्पण के प्रारंभ में ही वाद- विषय का उल्लेख कर देना चाहिए, फिर विचारणीय विषय अथवा प्रकरण कर इतिहास दिया जाना चाहिए और उसके बाद विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करते हुए निस्तारण के लिए विभिन्न विकल्प एवं अंत में क्रिया चयन के लिए युक्त विकल्प सुझाना चाहिए।
4) अनुच्छेदों को संख्याबद्ध करना : टिप्पणी के पहले अनुच्छेद को छोड़कर शेष सभी अनुच्छेद संख्याबद्ध कर देने चाहिए। इससे आदेशाधिकारी को न केवल पढ़ने समझने में सुविधा रहती है, अपितु यदि वह (किसी विशेष स्थल पर कोई अभ्युक्ति देना चाहता है, तो उसे संबंधित का हवाला देने में सुविधा रहती है।
5) विषय का उपविभाजन करना : कभी-कभी किसी विषय पर विभिन्न दृष्टियों से विचार करते हुए एक लंबा टिप्पण लिखना जरूरी होता है। ऐसी स्थिति में विषय का उपविभाजन कर लेना चाहिए तथा विभिन्न बिंदुओं पर पृथक-पृथक विचार करते हुए अंत में समाधान देना चाहिए।
6) प्रथम पुरुष का प्रयोग न करना : सहायक आदि अराजपत्रित अधिकारियों को टिप्पण लिखते समय प्रथम पुरुष अर्थात् मैं, मैंने का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
7) पूरे हवाले देना : टिप्पणी लिखते समय पूरे हवाले दिए जाने चाहिए। उदाहरण के लिए यदि टिप्पणी में इस बात का उल्लेख करना हो कि अमुक पत्र कई स्मरणपत्रों के बावजूद अनुत्तरित रहा है, तो फिर स्मरण-पत्रों की तिथियों का हवाला दिया जाना चाहिए। इस प्रकार से यदि पिछली पत्र का स्मरण दिलाना जरूरी हो तो फ़िर पत्र की संख्या तथा दिनांक देना चाहिए।
8) निर्देशों का क्रम पत्रावली के अनुरूप तथा निर्देश टिप्पणी के में रखना : जहाँ तक संभव हो सके वहाँ एक विषय पर एक ही टिप्पणी लिखनी चाहिए तथा में दिए गए निर्देशों का क्रम पत्रावली में दिए गए क्रम अनुसार होना चाहिए। निर्देश दैव के पास में ही लिखे जाने चाहिए, न कि मूल में। इसका कारण यह है कि निर्देशों का मूल में करने से अधिकारी का धयान बंट जाता है।
9) अधिकारी का ध्यान आकर्षित करने, कोई तर्क देने अथवा निष्कर्ष निकालने के लिए ही उदहारण देना : टिप्पणीकार को पत्र के किसी अंश का उद्धरण देकर टिप्पणी का अनावश्यक विस्तार नहीं करना चाहिए। पत्र के किसी अंश का उद्धरण तो तभी दिया जाना चाहिए जब टिप्पणीकार उसके आधार पर कोई तर्क देना चाहता है अथवा कोई निष्कर्ष निकालना चाहता है या फिर किसी अंश विशेष की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता है।
10) टिप्पणी से संबंधित सामग्री का मिसिल में होना : टिप्पणीकार को विचाराधीन विषय से संबंधित सारी सामग्री तथा प्रलेख, पत्रादि को उसी क्रम से मिसिल में लगा देना चाहिए जिस क्रम से वे टिप्पणी में संदर्भित किए गए हों। संबंधित सामग्री के मिसिल में न होने पर अधिकारी को टिप्पणी को समझने और निर्णय लेने में परेशानी होती है।
11)नैमी टिप्पणी का प्रयोग बहुत अधिक आवश्यकता होने पर ही करना : टिप्पणी तथा पत्रावली के साथ नेमी टिप्पणी अथवा अन्य कोई ऐसे कागजात नहीं भेजने चाहिए, जिससे ध्यान बंटने की संभावना हो।
12) स्याही से लिखना : टिप्पणी सदैव स्याही से लिखनी चाहिए या फिर वह टाइप की हुई होनी चाहिए।
13)संयम भाषा का प्रयोग : टिप्पणी लिखते समय सदैव संयत भाषा का प्रयोग करना चाहिए। भाषा ऐसी रहनी चाहिए, जिससे किसी प्रकार की कटुता अथवा व्यंगा का आभास न होने पाए। द्वयर्थक शब्दों का प्रयोग भूलकर भी नहीं करना चाहिए। टिप्पणीकार को अतिशयोक्ति एवं आलंकारिक भाषा प्रयोग से भी बचना चाहिए। दूसरे शब्दों में टिप्पणी की भाषा सरल, साफ-सुथरी, संयमित एवं विनयपूर्ण होनी चाहिए । टिप्पणीकार जो कुछ भी लिखे उसका अर्थ स्पष्ट एवं निर्भ्रान्त निकलना चाहिए।
अंतरंग विशेषताएँ
अभी तक जिन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है कि वे टिप्पणी के बहिरंग से संबंधित है। अब उन बातों को जान लेना भी जरूरी है, जो टिप्पणी के अंतरंग से संबंध रखती है। संक्षेप में ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1) वाद – विषय को भली भाँति समझना : टिप्पणी कार्य करने से पूर्व टिप्पणीकार को विचारणीय वाद-विषय को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए, क्योंकि वाद – विषय समझे बिना समस्या का समाधान प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। यदि समस्या का समाधान हो प्रस्तुत नहीं किया जा सके, तो टिप्पण-कार्य का कोई लाभ नहीं है, क्योंकि टिप्पण का मूल उद्देश्य है समस्या का समाधान अथवा निराकरण ।
2) विभिन्न विकल्प सूझाना तथा उनकी शक्ति एवं सीमाओं का उल्लेख : समस्या का समाधान सुझाते समय सभी संभावित विकल्पों का उल्लेख जरूरी है। प्रत्येक विकल्प के साथ उसकी शक्ति और समीओं का भी उल्लेख करना चाहिए और अंत में यह सुझाना चाहिए कि किस विकल्प को चुनना श्रेयस्कर है तथा क्यों?
3) विचारों को तार्किक क्रम में रखना : एक अच्छे टिप्पण की यह विशेषता होती है कि उसमें अपने विचारों को तार्किक क्रम में रखा जाता है, यह तार्किक क्रम भी पूर्वापर क्रम में बना होता है । पूर्वापर क्रम से अभिप्राय यह है कि टिप्पणीकार जहाँ पहले की गई कार्यवाही का उल्लेख करता है, वहाँ वर्तमान स्थिति बतलाते हुए भविष्य में की जाने वाली कार्यवाही भी सुझता है।
4) पुनरुक्ति से बचना : टिप्पण लिखते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसमें किसी भी प्रकार की पुनरुक्ति न हो। पुनरुक्ति से टिप्पणीकार की सूझबूझ, जानकारी तथा भाषाधिकार की कमी झलकती है।
5) संक्षिप्तता : टिप्पण लिखते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि व्यर्थ का विस्तार न किया जाए। दूसरे शब्दों में, टिप्पणी यथासंभव संक्षिप्त होनी चाहिए। अनावश्यक विस्तार से बचते हुए पैने तर्कों तथा प्रभावी भाषा में ही टिप्पणी लिखी जानी चाहिए। यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि संबंधित अधिकारी को दिन भर में अनेक टिप्पणियों एवं प्रारूपों से जूझना पड़ता है। इसके अतिरिक्त भी उसके पास अन्य अनेक काम होते हैं। ऐसी स्थिति में अनावश्यक विस्तार उसके समय का अपव्यय करेगा। होना तो यह चाहिए कि टिप्पणीकार ऐसी दिशा सुझाए जो संबंधित अधिकारी को सर्वथा उचित दिखलाई पड़े। उसे ऐसा लगे कि उस विकल्प के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प चुना ही नहीं जा सकता और प्रकार वह सुझाई गई दिशा पर अपनी सहमति दे दे।
6) व्यक्तिगत आक्षेप न करना : टिप्पणी सदैव तटस्थ भाव से लिखी जानी चाहिए। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसमें किसी वरिष्ठ अथवा कनिष्ठ अधिकारी अथवा किसी अन्य कर्मचारी पर कोई व्यक्तिगत आक्षेप न किया गया हो। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी विचार की तार्किक आलोचना करते हुए अथवा कोई सुझाव देते हुए किसी ऐसी दृढोक्ति का प्रयोग न किया जाय, जिससे टिप्पणीकार की अनुचित दिलचस्पी दिखलाई देती हो ।
7) उपदेशक न होना : टिप्पणीकार को उपदेश का रूप ग्रहण नहीं करना चाहिए।
टिप्पण-कार्य की क्रिया-विधि
सामान्यत: प्रत्येक टिप्पणी एक क्रमिक सोपान में से गुजरती हुई नीचे से ऊपर पहुँचती हैं इसका क्रम प्रायः इस प्रकार होता है : सहायक- अनुभाग अधिकारी- शाखा अधिकारी (अवर सचिव आदि)-प्रभागीय अधिकारी (उपसचिव, संयुक्त सचिव आदि)-सचिव-उपमंत्री / राज्य मंत्री मंत्री । कार्य की सुविधा एवं आवश्यकतानुसार इस क्रम में कभी-कभी थोड़ी बहुत छूट भी रहती है। उदाहरण के लिए कभी-कभी वरिष्ठ सहायकों को अपनी टिप्पणी सीधे शाखा अधिकारी को भेजने की छूट रहती है। इसी प्रकार के अनुभाग अधिकारी को अपनी टिप्पणी सीधे सचिव अथवा उपमंत्री को भेजने की छूट रहती है। सक्षम अधिकारी अपना निर्देश-आदेश देने से पहले मामले के बारे में बातचीत करने तथा जानकारी हासिल करने के लिए नीचे के अधिकारी को बुला सकता है। सक्षम अधिकारी से आदेश निर्देश प्राप्त करती हुई मिसिल सूचिका संबंधित अधिकारियों के हाथों से गुजरने के बाद पुन: संबंधित सहायक के पास पहुँच जाती है, जिससे चाहे उसे यह ज्ञात रहे कि ऊपरी स्तर पर विचारधीन मामले में क्या निर्णय लिया गया।
मुख्य टिप्पण तथा आनुषंगिक टिप्पण
मुख्य टिप्पण से अभिप्रायः उस टिप्पण से है, जो किसी सहायक अथवा लिपिक द्वारा किसी विषय अथवा समस्या पर सबसे पहले लिखा जाता है। यह सामान्य टिप्पण के रूप में भी हो सकता है तथा संपूर्ण टिप्पण के रूप में भी। इसके विपरीत आनुषंगिक टिप्पण वे है, जो इस मुख्य के पार्श्व में अथवा नीचे जुड़त चले जाते हैं। सहायक द्वारा प्रस्तुत किए गए टिप्पण से सहमत होने पर वह उसके नीचे दाई और अपने हस्ताक्षर करके लौटा देता है। यदि इस टिप्पण को आगे भेजना जरूरी होता है, तो वह उसे आगे भेज देता है। यदि वह अपनी ओर से कुछ जोड़ना चाहता है, तो सहायक द्वारा भेजे गए टिप्पण के नीच ही लिखकर अपने हस्ताक्षर कर देता है। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि अधिकारी सहायक द्वारा भेजे गए टिप्पण से सहमत ही हो। ऐसी स्थिति वह एक नया टिप्पण तैयार करता है। इस प्रकार से कभी-कभी दूसरा मुख्य टिप्पण तैयार हो जाता है। सामान्यतः किसी भी कार्यालय के किसी भी विभाग में किसी भी प्राप्त पत्र पर दो से अधिक मुख्य टिप्पण तैयार नहीं किए जाते।
मुख्य टिप्पण कैसे लिखे जाते हैं?
1) सहायक अथवा लिपिक सबसे पहले विषय से संबंधित सारी सामग्री का संकलन एवं अध्ययन करता है। यदि वह जरूरी समझता है, तो विषय के विभिन्न मुद्दों पर निर्देश प्राप्त करने के लिए आनुषंगिक टिप्पणों का सहारा लेता है।
2) सारी सामग्री संकलित करने तथा अध्ययन-मनन के बाद वह टिप्पण लिखना प्रारंभ करता है। वह सबसे पहले टिप्पण पृष्ठ संख्या देता है और उसके बाद टिप्पण क्रमसंख्या लिख देता है। इसके बाद वह इस प्रत्र / कागजात जिसके बारे में वह टिप्पण लिखना चाहता है, की प्राप्ति संख्या अथवा निर्गम क्रमसंख्या तथा सामाचार वाले भाग में पड़ी क्रमसंख्या टिप्पण के प्रथम पृष्ठ पर लिख देता है। टिप्पण कभी भी मूल पत्र पर नहीं लिखा जाता, अपितु वह तो फाइल के पत्राचार वाले भाग में लगाया जाता है।
3) इसके बाद वह इस बात का उल्लेख करता है कि वह पत्र / कागजात कहाँ से आया है और किसी संबंध में है। वह इस बात का भी उल्लेख करता है कि टिप्पणी क्यों लिखी जा रही है। कभी-कभी टिप्पणी के कथ्य का शीर्षक भी दे दिया जाता है।
4) इसके बाद पूर्व पत्र-व्यवहार, संबंधित नियम आदि के संकते दिए जाते हैं। ये सारे संदर्भ टिप्पणी के मूल अंश में उद्धृत नहीं किए जाते, अपितु ये तो बगल में संकेतित होते हैं। मूल अंश में तो विषय संबंधी समस्याएँ एवं आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं।
5) अंत में टिप्पणकर्त्ता बाईं ओर अपने नाम के आदूध देता है। इस प्रकार से मुख्य टिप्पण का कार्य संपन्न हो जाता है।
6) सहायक द्वारा तैयार किए गए इस टिप्पण को अनुभाग अधिकारी ध्यान से पढ़कर आगे की कार्रवाई करता है। यदि वह उस टिप्पण को शाखाधिकारी, उपसचिव आदि को नियमानुसार दिखाना आवश्यक समझता है, तो वह उसके नीचे बाईं ओर अपने संक्षिप्त हस्ताक्षर तथा तारीख डालकर आगे भेजा देता है। यदि वह इस टिप्पण में अपना कोई वक्तव्य जोड़ना चाहता है, तो वह इसे जोड़ सकता है और इसे जोड़ने के बाद ही अपने हस्ताक्षर करता है। यदि वह उससे संतुष्ट नहीं है, तो सर्वथा नया टिप्प्ण भी तैयार कर सकता है। यदि वह स्वयं उस विषय के निपटाने के लिए सक्षम अधिकारी हे, तो वह दाईं ओर हस्ताक्षर करने के बाद उचित निर्देश देते फाइल / कागजात लौटा देता है।
7) जब वह टिप्पण एवं फाइल शाखाधिकारी के पास पहुँचती है, तो वह उचित निर्देश देने के बाद दाईं ओर अपने हस्ताक्षर कर देता है और अनुभाग अधिकारी के पास वापस भेज देता है। यदि वह समझता है कि उक्त विषय पर उपसचिव अथवा सचिव के निर्देशों की आवश्यकता है, तो वह उस टिप्पण को उनके नाम अंकित करके बाद आगे बढ़ा देता है। यदि वह अपनी ओर से कोई सुझाव आदि देना चाहता है तो फिर उस टिप्पण को आगे बढ़ाकर अपने हस्ताक्षर कर देता है। कभी-कभी वह उपसचिव आदि से टेलीफोन से अथवा व्यक्तिगत संपर्क द्वारा मौखिक निर्देश भी प्राप्त कर लेता है।
8) जब उपसचिव, संयुक्त सचिव अथवा सचिव के पास नीचे से कोई टिप्पण आता है, तो वे प्रायः उस पर आदेश- निर्देश ही देते हैं, लेकिन यदि किसी टिप्पण को पढ़ने के बाद उनके मन में कोई शंका पैदा हो जाती है अथवा वे दिए गए सुझाव से सहमत नहीं होते तो वे उस टिप्पण को अपने प्रश्नों तथा निर्देश के पास नीचे लौटा देते हैं। यदि वे जरूरी समझते हैं, तो उसे आगे मंत्री के पास भेज सकते हैं।
स्वत: पूर्ण टिप्पण
स्वतः पूर्ण टिप्पण लिखने की आवश्यकता कदाचित् ही पड़ती है, लगभग नहीं के बराबर । इसका कारण यह है कि किसी भी कार्यालय में विभिन्न सोपानों पर होने वाली कार्यवाही सभी परिचित होते हैं। यदि कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि कोई नया अधिकारी कार्यभार संभाल लेता है, तो वह पिछली टिप्पणियों तथा पत्रावली का अध्ययन करके समस्या से पूरी तरह परिचित हो जाता है, लेकिन निम्नलिखित अथवा इनसे मिलती जुलती स्थितियों में स्वतः पूण टिप्पणी लिखने की आवश्यकता पड़ सकती है-
1) जब विचाराधीन विषय पर आंतरिक वित्त अधिकारियों, वित्त विभाग अथवा वित्त मंत्रालय से सलाह देना अथवा अनुमोदन कराना जरूरी होता है।
2) जब कोई प्रस्ताव अथवा विचारादि किसी सरकारी समिति अथवा आयोग के पास विचारार्थ भेजना हो।
3) जब किसी विचाराधीन विषय के संबंद्ध कई विभागों के साथ जुड़े हों तथा उस विषय पर निर्णय लेने से कई विभाग प्रभावित होते हों।
4) जब विचाराधीन समस्या इतनी जटिल हो कि संबंधित अधिकारी को उसकी पूरी पृष्ठभूमि से परिचित कराना जरूरी हो।
5) जब विचाराधीन विषय पर पत्र-व्यवहार बहुत अधिक हो चुका हो या टिप्पणियों का क्रम इतना लंबा खिंच गया हो कि निर्णय लेने वाले अधिकारी को सारा मामला संक्षेप में समझना जरूरी हो ।. आइए, टिप्पण विषयक इस सारी जानकारी को एक उदाहरण से समझ लें।
[…] टिप्पण: सामान्य परिचय। […]